Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 248
________________ ( 238 ) है। जिसका निरूपण हमारे नायक ने सूत्र 1143 से 1153 तक 11 सूबो मे किया है। श्रीद्रव्यसग्रह जी मे कहा है जीवादिसदहण सम्मत रूवमप्पणो तं तु / दुरभिणिवेसविमुक्कं गाणं सम्म खु होदि सदि जहि // 41 // अर्थ-जीवादि नौ तत्त्वो का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है और वह आत्मा का रूप है। जिसके होने पर निश्चय करके ज्ञान विपरीताभिनिवेश (मिथ्या अभिप्राय) से रहित सम्यक हो जाता है। यह लक्षण ज्यो का त्यो ऊपर के श्री पुरुपार्थसिद्धयुपाय से मिलता है। आत्मरूप लिखकर इसमे आरोपित लक्षणो का तथा राग का निषेध कर दिया है और श्रद्धा गुण की असली स्वभाव पर्याय रूप सम्यग्दर्शन का द्योतक है। उसके होने पर ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है यह उसका लाभ है। इसका निरूपण इस ग्रन्थ मे सूत्र 1143 से 1153 तक है। श्रीरलकरण्डश्रावकाचार जी में कहा है श्रद्धान परमार्थानामाप्तागमतपोभताम् / त्रिमूनापोटमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम् // 4 // अर्थ-सच्चे देव, आगम, और गुरुवो का तीन मूढता रहित, आठ मद रहित तथा आठ अग सहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यह लक्षण उपर्युक्त श्री नियमसार के लक्षण से लिया गया है। है तो यह असली सम्यग्दर्शन का लक्षण, पर सम्यग्दर्शन के अविनाभावी चारित्र गुण के बुद्धिपूर्वक विकल्प पर आरोप करके निरूपण किया है क्योकि उन्हें चरणानुयोग का ग्रन्थ बनाना इष्ट था। इसका निरूपण हमारे नायक ने सूत्र 1178 से 1585 तक किया है। श्रीमोक्षशास्त्र जी मे कहा है "तत्त्वार्थवद्धानं सम्यग्दर्शन"-सात तत्त्वो का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। है तो यह भी असली सम्यग्दर्शन का लक्षण पर अविनाभावी ज्ञान

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