Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 260
________________ ( 250 ) अब छह भावना कहते हैं --(खास) (34) 1. मूलभावना-सम्यक्त्व-स्वरूप-अनुभव वह सकल 'निज-धर्ममूल-शिवमूल है / जिनधर्मरूपी कल्पतरु का मूल सम्यक्त्व है ऐसा भावे (दसणमूलो धम्मो)।। (35) 2. द्वारभावना-धर्म नगर मे प्रवेश करने के लिये सम्यक्त्व द्वार है। (36) 3. प्रतिष्ठाभावना-व्रत-तप की, स्वरूप की प्रतिष्ठा सम्यक्त्व से है। (37) 4. निधानभावनाअनन्तसुख देने का निधान सम्यक्त्व (38) 5. आधारभावना-निज गुणो का आधार सम्यक्त्व है / (36) 6. भाजनभावना-सब गुणो का भाजन सम्यक्त्व है / ये छह भावनाये स्वरूप रस प्रगट करती हैं। अव सम्यक्त्व के पाच भूपण लिखते है - (40) 1. कोशल्यता-परमात्मभक्ति, परपरिणाम और पापपरित्याग (रूप) स्वरूप, भावसवर और शुद्धभावपोषक क्रिया को कौशल्यता कहते हैं। (41) 2. तीर्थसेवा-अनुभवी वीतराग सत्पुरुषो के सग को तीर्थसेवा कहते है। (42) 3. भक्ति-जिनसाधु और स्वधर्मी की आदरता द्वारा उसकी महिमा बधाना-उसको भक्ति कहते हैं। (43) 4. स्थिरता-सम्यक्त्व भाव की दृढता वह स्थिरता है। (44) 5. प्रभावना--पूजा-प्रभाव करना वह प्रभावना है / ये 'भूपण, सम्यक्त्व के है। सम्यक्त्व के पाच लक्षण हैं। वे क्या-क्या है उनको कहते हैं - (45) 1. उपशम-राग द्वेष को मिटाकर स्वरूप की भेंट करना वह उपशम है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289