Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 253
________________ ( 243 ) सवेग, अनुकम्पा सम्यक्त्व के अविनाभावी चारित्र गुण का विकल्पात्मक परिणमन है। श्री आत्मानुशान मे जो सम्यक्त्व के मूल सम्यक्त्व आदि दस भेद किये है वे अनेक निमित्तो की अपेक्षा सम्यक्त्व से अविनाभावी है। श्रीप्रवचनसार सूत्र 242 की टीका मे एक और ही प्रकार का व्यवहार निश्चय मिलता है। वहाँ अप्रमत दशा की बात है। अप्रमत्त दशा मे रत्नत्रय मे बुद्धिपूर्वक विकल्प का तो अभाव हो जाता है और सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र का भिन्न-भिन्न वेदन न होकर पानकवत् एकाग्र वेदन होता है / सो आचार्य कहते है कि गुण भेद करके भिन्न-भिन्न गुण को पर्याय से यदि मोक्षमार्ग कहो तो वही व्यवहार मोक्षमार्ग है और यदि गुण भेद न करके अभेद से कहो तो वही निश्चय मोक्षमार्ग है। यहाँ राग को व्यवहार और वीतरागता को निश्चय नहीं किन्तु पर्याय भेद को व्यवहार और पर्याय अभेद को निश्चय कहा है। श्री द्रव्यसग्रह मे वहुत सुन्दर विवेचन है। उन्होने सम्यग्दर्शन जो श्रद्धा गुण की असली पर्याय है उसे तो निश्चय सम्यग्दर्शन लिखा है। ज्ञान की पर्याय स्वपर के जानने रूप है। उसमे निश्चय व्यवहार का भेद नही किया। चारित्र गुण का परिणमन क्योकि वीतरागरूप भी होता है और सरागरूप भी। अत पर्याय के टुकड़े करके जितने अश मे वह चारित्रगुण शुभ विकल्प रूप परिणमन कर रहा है उतने अश मे तो उसको व्यवहार चारित्र कहा है ज्ञानी का व्यवहार है। जितने अश मे चारित्र वीतराग रूप परिणमन कर रहा है उसको निश्चय सम्यक् चारित्र कहा है। इन्होने पूरे द्रव्य गुण पर्याय के हिसाब से लिखा है सब झगडा ही खत्म कर दिया है / यह विवेचन शुद्ध है अर्थात् भिन्नभिन्न गुण भेद की पर्याय के अनुसार है। आरोप का काम नहीं है। श्री नियमसार सूत्र 5 तथा 51-52 की प्रथम पक्तियो मे व्यवहार सम्यक्त्व का निरूपण है। सूत्र 51-52 की अन्तिम पक्तियो मे सम्यगज्ञान का तथा 54-55 की प्रथम पक्ति मे निश्चय सम्यग्दर्शन निश्चय सम्यग्ज्ञान का निरूपण है। सूत्र 56 से 76 तक ज्ञानी के विकल्परूप


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