Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 232
________________ ( 222 ) सम्यकपने प्रगट प्रभुत्व गपितवाला होता हुआ ज्ञान को ही अनुसरण करने जाले मार्ग मे चन्ता है-प्रवर्तता है-परिणमता है-आचरण करता है तब वह विशुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि स्प अपनर्गनगर को पाता है।' तीन काल और तीन लोक मे यही एक मोक्षप्राप्ति का उपाय है। श्री प्रवचनगार अलिम पचरत्न में शुन के ही मुनिपना, ज्ञान दर्शन निवां कहा है। और नवमे चीका में जाने वाले पूर्ण शुद्ध व्यवहारी मुनि को ससार तत्व अति विभाव का राजा या मिथ्यादष्टिया का सामन्तान कहा है। ऐसी रहस्य की बात बिना सद्गुरु समागम नहीं आती। ऐसा मालूम होता है आपने बिना गुरुगम अभ्यास किया है। यदि विना गुरुगग तत्त्व हाथ लग जाया करता तो सम्यक्त्व में देशनालब्धि की आवश्यकता न रहती। केवल शास्त्रो से काम चल जाता। प्रश्न १६६-प्रमाण ज्ञान का स्वरूप क्या है ? उत्तर-जो जान सामान्य विशेप दोनो स्वरूपो को मंत्री पूर्वक जानता है वह प्रमाण है अर्थात् वस्तु के सम्पूर्ण अशो को अविरोधपूर्वक ग्रह्ण करने वाला ज्ञान प्रमाण है इसका विषय सपूर्ण वस्तु है। इसके द्वारा सम्पूर्ण वस्तु का अनुभव एक साथ हो जाता है / (665, 676) प्रश्न १७०-प्रमाण ज्ञान के भेद बताओ? उत्तर-प्रमाण के दो भेद है (1) प्रत्यक्ष (2) परोक्ष / असहाय ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं और सहाय सापेक्ष ज्ञान को परोक्ष कहते हैं / प्रत्यक्ष ज्ञान के दो भेद है / सकल प्रत्यक्ष और विकल प्रत्यक्ष / केवल ज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। अवधि मन पर्यय विकल प्रत्यक्ष है। मतिश्रुत परोक्ष है किन्तु इनमे इतनी विशेषता है कि अवधि मन पर्यय निश्चय से परोक्ष है उपचार से प्रत्यक्ष है / मतिश्रुतज्ञान स्वात्मानुभूति मे प्रत्यक्ष है / परपदार्थ को जानते समय परोक्ष है। इतनी विशेषता और है कि आत्म सिद्धि मे दो मतिश्रुत जान ही उपयागी है। अवधि मन पर्यय नही।

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