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( ४४ ) प्रश्न १०६-नित्य-अनित्य अनेकान्त को समझने से क्या लाभ
उत्तर-मेरा आत्मा नित्य है बाकी सब पर अनित्य है ऐसा जानकर अपने नित्य त्रिकाली भगवान का आश्रय लेकर धर्म की प्राप्ति होना, यह नित्य-अनित्य को समझने का लाभ है। अत अनित्य को गौण करके नित्य स्वभाव का आश्रय लेना पात्र जीवो का परम कर्तव्य है।
प्रश्न १०७-मेरा आत्मा नित्य है और पर अनित्य है तो 'पर में कौन-कौन आता है ?
उत्तर-(१) अत्यन्त भिन्न पर पदार्थ अनित्य है। (२) आँख, नाक, कान आदि औदारिकशरीर अनित्य है (३) तैजस-कार्माण शरीर अनित्य है। (४) भाषा और मन अनित्य हैं। (५) शुभाशुभ भाव अनित्य है। (६) अपूर्ण-पूर्ण शुद्ध पर्याय का पक्ष अनित्य है । (७) भेद नय का पक्ष अनित्य है। (८) अभेद नय का पक्ष अनित्य है । (६) भेदाभेद नय का पक्ष अनित्य है।
प्रश्न १०८-मेरी आत्मा ही नित्य है और नौ बोल तक सब अनित्य है इसको जानने से क्या लाभ है ?
उत्तर-अपने नित्य ज्ञायक स्वभाव की दृष्टि करने से सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति होकर क्रम से वृद्धि करके पूर्ण सिद्ध दशा की प्राप्ति होती है । और नौ नम्बर तक जो अनित्य है, उनसे लाभ-नुकसान माने तो चारो गतियो मे फिर कर निगोद की प्राप्ति होती है।
प्रश्न १०६-सर्वथा नित्य पक्ष के मानने में क्या नुकसान है ?
उत्तर-सत् को सर्वथा नित्य मानने मे परिणति का अभाव हो जावेगा । (२) परिणति के अभाव मे तत्व, क्रिया, फल, कारक, कारण, कार्य कुछ भी नही बनेगा।
प्रश्न ११०-सर्वथा-नित्या पक्ष मानने से 'तत्त्व' किस प्रकार नहीं बनेगा?
उत्तर-(१) परिणाम सत् की अवस्था है और आप परिणाम का