Book Title: Jain Siddhant Pravesh Ratnamala 04
Author(s): Digambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 222
________________ ( 212 ) असद्भूत व्यवहार नय है। ये नय विभाव को उस द्रव्य का बतलाती है और असद्भूत बतलाती है / ये नय केवल जीव पुद्गल मे ही लगती है क्योकि विभाव इन्ही दो मे होता है। वह विभाव एक बुद्धिपूर्वकव्यक्त-अपने ज्ञान की पकड मे आने वाला। दूसरा अव्यक्त-अपने ज्ञान की पकड मे न आने वाला। पकड मे आने वाले को उपचरित असद्भूत कहते हैं / उपचरित का अर्थ ही पकड मे आने वाला और असद्भूत का अर्थ विभाव / और पकड मे नही आने वाला अनुपचरित असद्भूत / इस नय के परिज्ञान से जीव को मूल मेटर का और मैल का भिन्न-भिन्न परिज्ञान हो जाता है और वह स्वभाव का आश्रय करके मैल को निकाल सकता है। फिर जो वचा उसका सद्भुत कहते है। उसमे पर्याय को उपचरित सद्भूत और गुण को अनुपचरित सद्भूत क्योकि पर्याय सदा पर से उपचरित की जाती है। और गुण से उपचरित नही होता अत• अनुपचरित / ये नय छहो द्रव्यो पर लगती है जैसे-ज्ञान स्व पर को जानता है यह तो जीव मे सद्भूत उपचरित, पुद्गल मे हरा-पीला आदि उपचरित, धर्म द्रव्य मे जो जीव पुद्गल को चलने मे मदद दे यह स्पष्ट पर से उपचरित किया गया है, अधर्म मे जो जीव पुद्गल को ठहरने मे मदद करे, आकाश में जो सबको जगह दे और काल मे जो सवको परिणमावे / ये सब उपचरित सद्भूत व्यवहार नय का कथन है / अब पर्याय दृष्टि को गौण करके द्रव्य और गुण का भेद करके कहना अनुपचरित जैसे आत्मा का ज्ञान गुण, पुद्गल का स्पर्श, रस, गध, वर्ण गुण, धर्म का गतिहेतुत्व गुण, अधर्म का स्थितिहेतुत्व गुण, आकाग का अवगाहत्व गुण, काल का परिणमनहेतुत्व गुण / इन गुणो को द्रव्य के उनुजीवी गुण बतलाना / स्वत. सिद्ध अपने कारण से रहने वाले, ये अनुपचरित सदभूत व्यवहार नय है। अनुपचरित अर्थात् पर से विल्कुल उपचार नहीं किये गये / किन्तु रव से ही उपचार किये गये। अब एक दृष्टि और समझने की है वह यह कि दूसरा धर्मी तो

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