________________ ( 185 ) जब एक द्रव्य दूसरे को छू भी नही सकता तो भोगना क्या ? अत. यह जो पर के भोग की चाह है इसे छोड। यह तो नास्ति का उपदेश है किन्तु इस कार्य की सिद्धि 'अस्ति' से होगी और वह इस प्रकार है कि जैसा कि तुझे सिखाया है तेरी आत्मा मे दो स्वभाव है एक त्रिकाली स्वभाव-अवस्थित, दूसरा परिणाम पर्याय धर्म / अज्ञानी जगत तो अनादि से अपने को पर्याय बुद्धि से देखकर उसी मे रत है। तू तो ज्ञानी बनना चाहता है। अपने को त्रिकाली स्वभाव रूप समझ | वैसा ही अपने को देखने का अभ्यास कर। यह जो तेरा उपयोग पर मे भटक रहा है। पानी की तरह इसका रुख पलट / पर की ओर न जाने दे। स्वभाव की ओर इसे मोड। जहाँ तेरी पर्याय ने पर की बजाय अपने घर को पकडा और निज समुद्र मे मिली कि स्वभाव पर्याय प्रगट हुई। बस उस स्वभाव पर्याय प्रगट होने का नाम ही सम्यग्दर्शन है। तीन काल और तीन लोक मे इसकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नही है। इसके होने पर तेरा पूर्व का सब ज्ञान सम्यक् होगा। ज्ञान का वलन (वहाओ, झुकाओ, रुख) पर से रुक कर स्व मे होने लगेगा। ये दोनो गुण जो अनादि से ससार के कारण बने हुए थे फिर मोक्षमार्ग के कारण होगे / ज्यो-ज्यो ये पर से छूट कर स्वधर मे आते रहेगे त्यो-त्यो उपयोग की स्थिरता आत्मा मे होती रहेगी। स्व की स्थिरता का नाम ही चरित्र है। और वह स्थिरता शनैशन पूरी हो कर तू अपने स्वरूप मे जामिलेगा (अर्थात् सिद्ध हो जायेगा)। सद्गुरुदेव की जय | ओ शान्ति। दूसरे भाग का दृष्टि परिज्ञान (2) / यह लेख इस ग्रन्थ के 752 से 767 तक 16 श्लोको का मर्म खोलने के लिये लिखा है / (पृष्ठ 236 पर) इस पुस्तक मे चार दृष्टियो से काम लिया गया है उनका जानना