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(३) [१] आत्मा का, [२] कर्म का, [३] कर्ता-भोक्तापने का, [४] पाप का, [५] पुण्य-पाप के कारण का, [६] पुण्य-पाप के फल का, [७] सामान्य विशेष स्वरूप का, [ ८ ] राग से भिन्न अपने स्वरूप का, आस्तिक्य का श्रद्धान- ज्ञान ना होना, वह मिथ्यादर्शन है । [ गा० १२३३]
(४) सात भय युक्त रहना वह मिथ्यादर्शन है । [ गा० १२६४ ] (५) इष्ट का नाश न हो जाय, अनिष्ट की प्राप्ति न हो जावे, यह धन नाश होकर दरिद्रता न आ जावे, यह इस लोक का भय है यह मिथ्यादर्शन है । विश्व से भिन्न होने पर भी अपने को विश्वरूप समझना यह मिथ्यादर्शन है । [ गा० १२७४ से १२७८ ]
(६) मेरा जन्म दुर्गति मे न हो जाये ऐसा परलोक का भय यह मिथ्यादर्शन है । [१२८४ से १२९१ तक ]
(७) रोग से डरते रहना या रोग आने पर घबराना या उससे ( रोग से ) अपनी हानि मानना यह वेदना भय मिथ्यादर्शन से होता है । [ गा० १२६२ से १२६४ तक ]
(८) शरीर के नाश से अपना नाश मानना यह अत्राणभय ( वेदना - भय) मिथ्यादृष्टियों को होता है । [ गा० १२६६ से १३०१]
( 2 ) शरीर की पर्याय के जन्म से अपना जन्म और शरीर की पर्याय के नाश मे अपना नाश मानना यह अगुप्तिभय मिथ्यादर्शन से होता है । [१९३०४ से १३०५ ]
(१०) दस प्राणो के नाश से डरना या उनके नाश से अपना नाश मानना या मरणभय मिथ्यादर्शन से होता है । [१३०७ से १३०८ ]
(११) विजली गिरने से या और किसी कारण से मेरी बुरी अवस्था ना हो जाय ऐसा अकस्मात्भय मिथ्यादर्शन से होता है । [ गा० १३११ से १३१३] (१२) लोकमूढता, देवमूढता, गुरुमूढता और धर्ममूढता यह मिथ्यादर्शन के चिन्ह हैं । [ गा० १३६१ से १३६९]