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( २४ ) वन्तु की ओर दष्टि करे तो तत्काल सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति होकर म से निर्वाण की प्राप्ति हो, यह वस्तु को जानने का लाभ है।
प्रश्न २५- मैं फिसमे नहीं बसता हैं। और किस मे बसता हूँ?
उत्तर-(१) अत्यन्त भिन्न पर पदार्थों मे नही वसता हूँ अपने गुण-पर्यायो में बसता हूँ। (२) माग्व-नाक-कान आदि औदारिक शरीर ने नही बसता हूँ, अपने गुण-पर्यायो मे वसता हूँ (३) तेजस-कार्माण दारीर मे नही बमता हूँ, अपने गुण-पर्यायो मे बसता हूँ। (४) भापा
और मन मे नही वसता हूँ, अपने गुण पर्यायो मे बसता हूँ। (५) शुभाशुभभावो में नहीं बनता है, अपने गुण-पर्यायो मे बसता हूँ। (६) अपूर्ण-पूर्ण शुद्ध पर्यायो रुप भेद कल्पना मे नही बसता हूँ, अपने गुण पर्यायो मे बसता हूँ। (७) भेद नय के पक्ष मे नही बसता हूँ, अपने गुण-पर्यायो मे बसता हूँ। (८) अभेद नय के पक्ष मे नही वसता हूँ अपने गुण-गर्यायो मे बसता हूँ। (6) भेदाभेद नय के पक्ष मे नही बसता हूँ, अपने गुण-पर्यायो मे बसता हूँ।
प्रश्न २६-प्रत्येक वस्तु अपने-अपने मे ही वसती है, पर मे नही बसती, यह महामत्र किन-किन शास्त्रो मे आया है ?
उत्तर-(अ) अनादिनिधन वस्तुये भिन्न-भिन्न अपनी-अपनी मर्यादा महित परिणमित होती है, कोई किसी के अधीन नही है, कोई किसी के परिणमित कराने से परिणमित नहीं होती।" [मोक्ष-मार्ग प्रकाशक पृष्ठ ५२] (आ) सर्व पदार्थ अपने द्रव्य मे अन्तर्मग्न रहने वाले अपने अनन्त धर्मों के चक्र को चुम्बन करते है- स्पर्श करते हैं, तथापि वे परस्पर एक-दूसरे को स्पश नही करते [समयसार गा० ३] । (इ) अपने-अपने सत्वक, सर्व वस्तु विलसाय। ऐसे चिंतवै जीव तव, परते ममत न थाय। जयचन्द्र जी अन्यत्व भावना] (ई) अन्य द्रव्य से अन्य द्रव्य के गुण की उत्पत्ति नही की जा सकती, क्योकि सर्व द्रव्य अपने-अपने स्वभाव से उत्पन्न होते है। [समयसार गा० ३७२] (उ) सत् द्रव्य लक्ष्णम्-उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्तसत् [तस्वार्थसूत्र] (ऊ)