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( ३८ ) से कहा जाता है । (३) स्वकाल = वस्तु मात्र की मूल अवस्था । परकाल-द्रव्य की मूल की निविकल्प अवस्था, वही अवस्थान्तर भेदस्प कल्पना से पर काल कहा जाता है । (४) स्वभाववस्तु की मूल को सहज शक्ति । परभाव-द्रव्य की सहज गक्ति के पर्याय रूप (भेदरूप) अनेक अंग द्वारा भेद कल्पना, उसे परभाव कहा जाता है।" इस प्रकार स्त्र के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की ओर दृष्टि करने से पर के द्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव की ओर दृष्टि ना करने से भगवान को अनन्त चतुष्टय को प्राप्ति हुई । [समयसार कलश २५२]
प्रश्न ७५ हमें अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति कैसे होवे ?
उत्तर-जैसे-भगवान ने किया और वैसा ही उपदेश दिया है। जो जीव भगवान के कहे अनुसार चलता है उसे अनन्त चतुष्ट्य को प्राप्ति होती है, अन्य प्रकार से नहीं होती है।
प्रश्न ७६-स्वचतुष्टय, परचतुष्टय फितने द्रव्यो में पाया जाता उत्तर-प्रत्येक द्रव्य मे पाया जाता है।
प्रश्न ७७--जो मूढ मिथ्यादष्टि हैं वह कैसा भेद विज्ञान करे, तो अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति हो ?
उत्तर-(१) मेरा द्रव्य-गुण-पर्याय मेरा स्वद्रव्य, इसकी अपेक्षा वाकी सब द्रव्यो के गुण-पर्यायो के पिण्ड परद्रव्य है। (२) मेरा असख्यात प्रदेशी आत्मा स्वक्षेत्र है, इसकी अपेक्षा वाकी सब द्रव्यो का क्षेत्र परक्षेत्र है। (३) मेरी पर्यायो का पिण्ड स्वकाल है, इसकी अपेक्षा वाकी सब द्रव्यो की पर्यायो का पिण्ड परकाल है। (४) मेरे अनन्त गुण मेरा स्वभाव है, इसकी अपेक्षा वाकी सब द्रव्यो के अनन्त गुण पर भाव हैं पात्र जीव को प्रथम प्रकार का भेद विज्ञान करने से अनन्त चतुष्ट्य को प्राप्ति का अवकाश है।
प्रश्न ७८-दूसरे प्रकार का भेदविज्ञान क्या है ? उत्तर--(१) मेरे गुण-पर्यायो का पिण्ड स्वद्रव्य है, इसकी अपेक्षा