Book Title: Jain Shraman Sangh ka Itihas
Author(s): Manmal Jain
Publisher: Jain Sahitya Mandir

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Page 11
________________ जैन धो की माचीनता MASKUNDRANISHTRANSFOMPANISA TISMHISTOWileyonSCUEMISCUNNAMOKTA METHNICHEHRASC H resule24 आधुनिक कतिपय इतिहासकारों की ऐसी इसका अर्थ यह है कि केवल ज्ञान द्वारा सर्व मान्यता है (पबपि धेरों को पह स्वीकृत नहीं) व्यापी, कल्याण स्वरुप, सर्व शान जिनेश्वर रिषभदेव कि महाभारत ईसा से तीन हजार वर्ष पहले तैयार सुन्दर केलाश पक्ष पर उतरे। इसमें आया हुआ हुआ था और रामचन्द्रबी महाभारत से एक हजार वृषभ' और 'जिनेश्वर' शन्द जैवधर्म को सिद्ध करते वर्ष पहले विधमान थे। इस पर से कहा पा सकता है क्योंकि जिन' और 'अरहन्' शब्द जैन तीर्थ कर है कि रामचन्द्रजी के समय में ( चाहे वह कौन के लिये रूह है। बम्हाएड पुराण में इस प्रकार सा भी हो ) जैमधर्म का अस्तित्व था। रामचन्द्रजी लिखा है:के कान में बैनधर्म का पवित्व सिद्ध हो जाने पर "वाभिस्त्वजनयत्पुर्व मरुदेठयां मनोहरम् । घेदव्यास के समय में इसका अस्तित्व सिद्ध करने रिषभं क्षत्रियज्येष्ठं सवित्रस्य पूर्णजम् ।। की कोई भावश्यकता नहीं रह जाती है। पदपि घेद रिषमाद् भरतो जसे वीरः पुत्रशताग्रयो। ध्यास ने अपने बम्ह सूब "वैकस्मिनसंभवात्" कहकर भिपिब्धय मरतं राज्ये महाप्रमज्यामास्थितः ।" जैन दर्शन के स्यावाद सिद्धान्त पर माक्षेप किया है। “ह हि इस्वाकुकुल शोद् भवेन नामिसुतेन अगर उस समय जैन दर्शन का स्याद्वाप सिद्धान्त मरुदेव्याः नन्दनेन महादेवेन रिषभेण दशप्रकारो विकसित न हुआ होना तो वेद व्यास उस पर लेखनी धर्मः स्वयमेवाचीर्णः केवल ज्ञानलाभाच्च प्रवर्तितः" नहीं उठाते। यद्यिप वेदव्यास ने द्वाद के जिस अर्थात्:- नामिराजा और मरुदेवी रानी से रूप पर आक्षेप किया है वह स्याद्वार का शुद्ध रूप मनोहर, क्षत्रिय वंश का पूर्वाज रिषभ' नामक पुत्र नही-विकृत रूप है । वदपि उससे यह तो भलीभांति उत्पन्न हुआ। रिषभनाथ के सौ पुत्रों में सबसे सिद्ध हो जाता है कि वेद व्यास के समय में बैन बड़ा पुत्र शूरवीर 'भरत' हुपा । रिषभ देव मरत को दर्शन का मौलिक सिद्धान्त स्याद्वाप प्रचलित था। राण्यारूद करके प्रपति हो गये। इक्ष्वाकु वर में रामायण महाभारत से जैनधर्म का अस्तित्व सिद्ध सम्पन्न नाभिराजा और मरुदेवी के पुत्र रिषभ ने हो जाने पर अब पुराणों को देखना चाहिए। क्षमा मादव थापि इस प्रकार का धर्म स्वयं धारण ___ अठारह पुराण महर्षि व्यास के द्वारा रचित माने किया और केवल ज्ञान पाकर इसका प्रचार ख्यिा। जाते है । ये व्यास महर्षि महाभारत के समयवर्ती स्कन्द पुराण में भी लिखा है:बतलाये जाते है । चाहे कुछ भी हो हमें यह देखना आदित्य प्रमुखाः सर्वे बद्धाज्जलय ईशं । ध्यायन्ति भावतो नित्यं यदङ्गियुगनीरजं ॥ है कि पुराण इस विषय में क्या कहते हैं ? शिव परमात्मानमात्मानं लमत्के ला निमलम् । पुगण में रिषभनाथ भगवान का उल्लेख इस प्रकार निरज्जन निराकार रियमन्तु महा रिषिम् ।। से किया गया है: भावार्थ:-रिषभदेव परमात्मा, केवल ज्ञानी, कैलाश पर्वते रम्ये वृषमोऽय जिनश्वरः। निरजन, निराकार और महर्षि है। ऐसे रिषभदेव के रण युगल का प्रादित्य आदि सूर-नर भावपूर्वक चकार स्वावताररूच सर्वज्ञः सवंगः शिवः ।। अन्जली जोड़कर ध्यान करते हैं। Shree Sudhamaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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