Book Title: Jain Shila Lekh Sangraha Part 2
Author(s): Vijaymurti M A Shastracharya
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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मथुराके लेख
४४ मथुरा-प्राकृत ।
[हुविष्क वर्ष ४०] अ. १.-४०-हे-दि १० व. १. ए ति] स्य पू वा य वरणतो ग [ण]स. १. तो आर्य हटिकियतो कुलतो द. १ बजनगरित ] श [] ख [] त [] शि [रि] यत [1] . अ. २ -~~ [ग] तो [द] तिस्य शिशिनिये व. २. महन [न्दि] स्य सढचरिये स. २ बल [वर्म] ये नन्द] ये च शिशिनिये द. २ अ [कक] ये [निर्वर्त्तना ].....। अ. ३. –स्य] धीतु ग्रमि [क] जयदेवस्य वधूये व. ३ . "मिको जयनागस्य धर्मपत्निये सिहदता ये] स. ३... [लथम ]ो 'दन ="
अनुवाद-[सिद्धि हो।] ४० वें [वपमें ] शीत ऋतुके......"महीनेके दसवें दिन, सिहदता (सिंहदत्ता) ने एक पापाण-स्तम्भकी स्थापना की। यह सिंहदत्ता ग्रामिक जयनागकी धर्मपत्नी, जयदेव ग्रामिक (गाँवका मुखिया) की बहू (तथा).. • की पुत्री थी। इस पाषाणस्तम्भकी स्थापना वारण गण, आर्य-हाटीकीय कुल, वज्रनागरी शाखा तथा शिरिय संभोगकी अकका (१) के आदेशसे हुई थी। यह अकका नन्दा और बलवर्माकी शिष्या, महनन्दि (महानन्दि) की श्राद्धचरी तथा दति (दत्ती) की शिष्या थी।
[E1, 1, n° XLIII, n° 1]
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१ पढो "शिलाथभो।