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वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन
४. संस्कार आत्माभिव्यक्ति के माध्यम : संस्कार को आत्माभिव्यक्ति का माध्यम भी माना गया है, क्योंकि गृहस्थ के जीवन में विभिन्न घटनाएँ घटित होती हैं, जो हर्ष एवं प्रमाद का कारण बनती हैं। उन घटनाओं से सम्बन्धित संस्कारों को करने से व्यक्ति को आत्माभिव्यक्ति का अवसर मिलता है, इसलिए भी संस्कारों की उपादेयता है।
५. सांस्कृतिक-प्रयोजन : संस्कृति को जीवन्त रखने के लिए भी इन संस्कारों की आवश्यकता है, जैसे- प्राचीनकाल में यह मान्यता थी कि उत्पन्न होते समय प्रत्येक व्यक्ति शूद्र होता है, किन्तु संस्कारों से ही वह ब्राह्मण हो जाता है, अतः व्यक्ति के विकास के लिए उसको संस्कारित किया जाना आवश्यक है।
६. व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास : संस्कार व्यक्ति को सुसंस्कृत बनाते है। व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास संस्कारों द्वारा होता है, अतः संस्कारों का उद्भव हमारे व्यक्तित्व के निर्माण एवं विकास के लिए ही हुआ हैऐसा मानना अनुचित नहीं होगा। अंगिराऋषि के शब्दों में "जिस प्रकार चित्रकर्म में सफलता प्राप्त करने के लिए विविध रंग अपेक्षित होते हैं, उसी प्रकार ब्राह्मणत्व या चरित्र-निर्माण के लिए विभिन्न संस्कार अपेक्षित होते हैं।"
७. आध्यात्मिक-महत्वः संस्कारों के माध्यम से क्रियाशील सांसारिक-जीवन का समन्वय आध्यात्मिक-साधना के साथ किया जा सकता है। इसी क्रम में स्वर्ग एवं मोक्ष की प्राप्ति तथा पद एवं अधिकारों की प्राप्ति भी संस्कारों से ही सम्भव होती है।
८. संस्कारों के माध्यम से ही समाज में व्यक्ति का स्थान क्या है, उसके दायित्व एवं अधिकार क्या हैं? इसकी सार्वजनिक घोषणा होती है, अतः सामाजिक-व्यवस्था में संस्कारों का महत्वपूर्ण स्थान है। संस्कारों की संख्या -
संस्कारों की संख्या के सम्बन्ध में मतैक्य नही है। श्वेताम्बर-परम्परा के ग्रन्थ “आचारदिनकर" में संस्कारों की चर्चा करते हुए उनकी संख्या ४० बताई गई है, जिनमें से १६ संस्कार गृहस्थों के, १६ संस्कार यतियों के एवं ८ सामान्य संस्कार हैं। इस प्रकार इस ग्रन्थ में ४० संस्कारों का उल्लेख मिलता है।
दिगम्बर-परम्परा में संस्कारों की संख्या अधिक बताई गई है। दिगम्बर-परम्परा के “आदिपुराण" नामक ग्रन्थ में इन विविध संस्कारों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। आदिपुराण में संस्कारों को तीन भागों में विभाजित कर इनके
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