Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 9
________________ (८ ) वरन् अपनी श्रमशीलता और प्रज्ञा से उसे मूर्तरूप भी दे डाला । फल स्वरूप जैन साहित्य के इतिहास की यह पूर्व पीठिका विद्वानों के सामने आ रही है। __ इस ग्रन्थ में जैनधर्म की मूल स्थापना से लेकर संघ भेद तक के सुदीर्घ काल का इतिहास लिखा गया है। इसमें श्रमण परम्परा इस देश में जिस प्रकार विकसित हुई उसका विवेचन किया गया है । इतिहास लेखन विशेष कला है। उसमें प्रमाण सामग्री और लेखक की निजी दृष्टि के अनुसार उसकी व्याख्या, इन दो चक्रों पर ऐतिहासिक लेखन का रथ गतिशील होता है। ___ यह सुविदित है कि जैनधर्म की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है । भगवान महावीर तो अन्तिम तीर्थङ्कर थे । मिथिला प्रदेश के लिच्छवी गणतंत्र से, जिसकी ऐतिहासिकता निर्विवाद है, महावीर का कौटुम्बिक सम्बन्ध था । उन्होंने श्रमण परम्परा को अपनी तपश्चर्या के द्वारा एक नई शक्ति प्रदान की जिसकी पूर्णतम परम्परा का सन्मान दिगम्बर परम्परा में पाया जाता है। भगवान महावीर से पूर्व २३ तीर्थङ्कर और हो चुके थे। उनके नाम और जन्म वृत्तान्त जैन साहित्य में सुरक्षित हैं। उन्हीं में भगवान ऋषभदेव प्रथम तीर्थङ्कर थे जिसके कारण उन्हें आदिनाथ कहा जाता है। जैन कला में उनका अंकन घोर तपश्चर्या की मुद्रा में मिलता हैं । ऋषभनाथ के चरित का उल्लेख श्रीमद्भागवत में भी विस्तार से आता है और यह सोचने पर बाध्य होना पड़ता है कि इसका कारण क्या रहा होगा ? भागवत में ही इस बात का भी उल्लेख है कि महायोगी भरत ऋषभ के शत पुत्रों में ज्येष्ठ थे और उन्हीं से यह देश भारत वर्ष कहलाया येषां खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठः श्रेष्ठगुण आसीत् । येनेदं वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति । -भागवत ५।४'। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 ... 778