Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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जैन साहित्य का वृहद् इतिहास - चम्पा नगरी धन-धान्यादि से समृद्ध और मनुष्यों से आकीर्ण थी। सैकड़ोंहजारों हलों द्वारा यहाँ खेती की जाती थी, किसान अपने खेतों में ईख, जो
और चावल बोते तथा गाय, भैंस और भेड़ें पालते थे। यहाँ के लोग आमोदप्रमोद के लिए कुक्कुटो और साँड़ों को रखते थे। यहाँ सुन्दर आकार के चैत्य तथा पण्य-तरुणियों के मोहल्ले थे । लांच लेनेवालों, गंठकतरों, तस्करों और कोतवालों (खंडरक्खिअ-दंडपाशिक) का यहाँ अभाव था। श्रमणों को यथेच्छ भिक्षा मिलती थी। नट, नर्तक, जल्ल (रस्सी पर खेल करने वाले), मल्ल, मौष्टिक ( मुष्टि से लड़ने वाले), विदूषक, कथावाचक, प्लवक ( तैराक), रासगायक, शुभाशुभ बखान करने वाले, लंख (बाँस के ऊपर खेल दिखलाने वाले), मंख ( चित्र दिखाकर भिक्षा मांगने वाले), तूणा बजाने वाले, तुंच की वीणा बजाने वाले और ताल देकर खेल करने वाले यहाँ रहते थे। यह नगरी आराम, उद्यान, कूप, तालाब, दीर्घिका ( बावड़ी) और पानी की क्यारियों से शोभित थी। चारों ओर से खाई और खात से मंडित थी तथा चक्र, गदा, मुसुंढि', उरोह (छाती को चोट पहुँचाने वाला), शतघ्नी तथा निश्च्छिद्र कपाटों के कारण इसमें प्रवेश करना दुष्कर था। यह नगरी वक्र प्राकार (किला) से
(ई) संस्कृत व्याख्या व उसके हिन्दी-गुजराती अनुवाद के साथ
मुनि घासीलाल, जैन शास्त्रोद्धार समिति, राजकोट, सन् १९५९. (उ) मूल-छोटेलाल यति, जीवन कार्यालय, अजमेर, सन् १९३६. "उपपतनं उपपातो-देवनारकजन्मसिद्धिगमनं च, अतस्तमधिकृत्य कृतमध्य-- यनमौपपातिकम्" (अभयदेव, औपपातिक-टीका)-अर्थात् देवनारकजन्म
और सिद्धिगमन को लेकर लिखा गया शास्त्र । इस पर जिनेश्वरसूरि के शिष्य चन्द्रकुलोत्पन्न नवांगों पर वृत्ति लिखने वाले अभयदेवसूरि ने प्राचीन टीकाओं के आधार से टीका लिखी है, जिसका संशोधन गुजरात
की प्राचीन राजधानी अणहिलपाटण के निवासी द्रोणाचार्य ने किया। १. इसका आकार शतघ्नी के समान होता है। पैदल सिपाही इसके द्वारा
युद्ध करते हैं। २. इसका आकार लाठी के समान होता है। इसमें लोहे के कोटे लगे
रहते हैं। इसके द्वारा एक बार में सौ मनुष्य मारे जाते हैं। महाभारत में इसका उल्लेख है।
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