Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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औपपातिक
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सन्तुष्ट होते हैं, वे श्रमण भगवान् महावीर पूर्वानुपूर्वी से विहार करते हुए नगर के. पूर्णभद्र चैत्य में शीघ्र ही पधारने वाले हैं । यही सूचित करने के लिए आपकी. सेवा में मैं उपस्थित हुआ हूँ” (११) ।
भंभसार का पुत्र राजा कूणिक वार्ता निवेदक से यह समाचार सुन कर अत्यन्त प्रसन्न हुआ, हर्षोत्कम्प से उसके कटक ( कंकण ), बाहुबन्द, बाजूबन्द, मुकुट और कुण्डल चंचल हो उठे । वेग से वह अपने सिंहासन से उठा, पादपीठ से उतरा और उसने पादुकाएँ उतारी। तत्पश्चात् खड्ग, छत्र, मुकुट, उपानह ( जूते ). और चामर का त्याग कर एकशाटिक उत्तरासंग धारण कर, परम पवित्र हो, हाथ नोड़, तीर्थंकर के अभिमुख सात-आठ पग चला। फिर बायें घुटने को मोड़, दाहिने को जमीन पर रख, तीन बार मस्तक से जमीन को स्पर्श किया। फिर तनिक ऊपर उठकर, कंकण और बाहुबन्दों से स्तब्ध हुई भुजाओं को एकत्र कर, हाथ जोड़कर 'नमोत्थु अरिहंताणं' आदि पढ़कर श्रमण भगवान् महावीर को नमस्कार किया और फिर अपने आसन पर पूर्वाभिमुख हो बैठ गया । कूणिक ने शुभ समाचार देनेवाले वार्तानिवेदक को प्रीतिदान' देकर उसका आदर सत्कार किया और उसे आदेश दिया कि जब भगवान् पूर्णभद्र चैत्य में पधारें तो वह तुरन्त ही निवेदन करे (१२)।
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अगले दिन महावीर अपने शिष्य-समुदाय के साथ विहार करते-करते चम्पा नगरी के पूर्णभद्र चैत्य में आ पहुँचे । उनके साथ उम्र, भोग, राजन्य, ज्ञात', कौरव आदि कुलों के अनेक क्षत्रिय, भट, योद्धा, सेनापति, श्रेष्ठी व इभ्य ( धनी ). मौजूद थे जिन्होंने विपुल धन-धान्य और हिरण्य- सुवर्ण का त्याग कर महावीर के पादमूल में श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण की थी । ये शिष्य मनोबल सम्पन्न थे तथा शाप देने और अनुग्रह करने में समर्थ थे । उनके निष्ठीवन ( थूक ), मल, मूत्र, तथा हस्तादि - स्पर्श रोगी को स्वस्थ करने के लिए औषधि का काम करते थे । अनेक श्रमण मेधावी, प्रतिभासम्पन्न तथा कुशल वक्ता थे और आकाशगामिनी विद्या में निष्णात थे । वे कनकावलि, एकावलि', क्षुद्र सिंहनिष्क्रीडित, महासिंह१. प्रीतिदान की तालिका के लिए देखिये --नायाधम्मकहाओ १, पृ
४२ अ - ४३.
२. अभयदेव ने णाय का अर्थ नागवंश किया है जो ठीक नहीं है— इक्ष्वा कुवंशविशेषभूताः नागा वा नागवंशप्रसूताः ( उववाइय, पृ० ५० ) । ३. एकावलि तप की परम्परा सम्भवतः नष्ट हो जाने से अभयदेवसूरि ने इसका विवेचन नहीं किया— एकावली व नान्यत्रोपलब्धेति न लिखिता ( वहीपृ० ५६ ) ।
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