Book Title: Jain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 2
Author(s): Jagdishchandra Jain, Mohanlal Mehta
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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औपपातिक आगम-ग्रन्थों के टीकाकारों ने किया है। उदाहरण के लिए सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति का विषय एक होने पर भी उन्हें भिन्न-भिन्न उपांग माना गया है। भगवतीसूत्र कालक्रम की दृष्टि से उपांगों की अपेक्षा प्राचीन है, लेकिन उसमें किसी विषय को विस्तार से जानने के लिए उववाइय, रायपसेणइय, जीवाभिगम, “चन्नवणा आदि उपांगों का नामोल्लेख किया गया है। सूयगडंग और अणुत्तरोववाइयदसाओ नामक अंगों में उववाइय उपांग का उल्लेख मिलता है । इसके अतिरिक्त दिठिवाय, दोगिद्धिदसा, तथा नन्दिसूत्र की टीका में उल्लिखित कालिक और उत्कालिक के अन्तर्गत दीवसागरपन्नत्ति, अंगचूलिका, कापाकप्पिय, विज्जाचरण, महापण्णवणा आदि अनेक आगम ग्रन्थ कालदोष से नष्ट हो गये हैं । आगम-ग्रन्थों की नामावलि और संख्या में मतभेद पाये जाने का कारण आगमों की यही विशृंखलता है जिससे जैन आगमों की अनेक परम्पराएं काल के गर्भ में विलीन हो गयीं। ऐसी दशा में जो कुछ अवशिष्ट है उसी से संतोष करना पड़ता है। बारह उपांगों के निम्नलिखित परिचय से उनके महत्त्व का अनुमान लगाया जा सकता है। प्रथम उपांग:
उववाइय--औपपातिक' जैन आगमों का पहला उपांग है। इसमें ४३ सूत्र हैं। ग्रन्थ का आरम्भ चम्पा नगरी (आधुनिक चम्पानाला, भागलपुर से लगभग ३ मील दूर ) के वर्णन से किया गया है। १. देखिये-स्थानांग-टीका, पृ० ४९९ अ आदि
सत्संप्रदायहीनत्वात् सदूहस्य वियोगतः । सर्वस्वपरशास्त्राणामदृष्टेरस्मृतेश्च मे ॥ वाचनानामनेकत्वात् पुस्तकानामशुद्धितः । सूत्राणामतिगांभीर्यान्मतभेदाच कुत्रचित् ॥ थूणानि संभवन्तीह केवलं सुविवेकिभिः ।
सिद्धान्तानुगतो योऽर्थः सोऽस्माद् ग्राह्यो न चेतरः ॥ २. देखिये-जगदीशचन्द्र जैन, जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज,
पृ० ३२-३४, २६. ३. (अ) प्रस्तावना आदि के साथ-E. Leumann, Leipzig, 1883. (आ) अभयदेवकृत वृत्तिसहित-आगमसंग्रह, कलकत्ता, सन् १८८०;
भागमोदय समिति, बम्बई, सन् १९१६. (इ) हिन्दी अनुवादसहित-अमोलकऋषि, हैदराबाद, वी० सं० २४४६.
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