________________
॥श्री वीतरागायन मोस्तुतराम् ॥ "अथ श्री जैन मत वृक्षः”
र सपा
(१)
जैनमत के शास्त्रानु लार यहजगत् गवाहसे अनादि चला आताहै, और सत्य धर्म के उपदेशकभी प्रवाहसें अनादि चले आतेहै. इस संसार में अनादि से दोदो प्रकारका काल प्रवर्तताहै, एक अवप्पि णी काल, अर्थात् दिन दिन प्रति आयुः, बल, अवगाहना प्रमुख सर्व वस्तु जिसमें घटती जातीहै, और दूसरा उत्सप्पिणी काल, जिसमें सर्व अच्छी वस्तुको वृद्धि होती जातीहै. इन पूर्वोक्त दोनुं कालोंमें अर्थात् अवपिणी-उत्सप्पिणीमें, कालके करे छ छ विभागहै. अवसर्पिणीका प्रथम, सुषम सुषम, (१) सुषम, (२) नुपम दुषम, (३) दुषम सुषम, (४) दुषम, (५) दुषमा दुषम, (६) है. उत्सर्पिणीमें छहो विभाग उलटे जानलेने. जब अवसर्पिणी काल पूराहोताहै, तब उत्सर्पिणी काल शुरू होताहै. इसीतरें अनादि अनंत कालकी प्रवृत्तिहै; और हरेक अवसर्पिणी उत्स