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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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श्री जैनमत वृक्ष...
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न्यायांभोनिधि तपगच्छाचार्य श्रीमद्विजयानंद सूरि अपरनाम आत्मारामजी महाराज कृत.
छपावी प्रसिद्ध करनार. श्री आत्मानन्द जैनसभा पंजाब.
धी डायमंड ज्युबिली प्रेस.. - अमदावाद.
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संवत् १९५६
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सने १९००
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ॐ
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श्री आत्मानंद जैनसभा पंजाब.
सर्व हक्क स्वाधीन.
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धी डायमन्ड ज्युबिली प्रीन्टिंग प्रेसमां छाप्युं.
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॥ ॐ ॥
विदित होवे कि, यह जैनमत वृक्ष नामा ग्रंथ, ग्रंथकर्त्ताने किस मिहनत से बनाया है; सो मिहनत तो, असली वृक्षके समान, मुंबाइमें छपे हुए " जैन मत वृक्ष" से मालुम होती है. परंतु अपशोस है कि, वो जैसा कि लोकोपयोगी होने का ख्याल रखतेथे, नही हुआ. बडी भारी खराबी तो उसमें यह हुई है कि, वो वृक्ष लाल स्याही सें छपा है, जिससे कइ जगापर अक्षर साफ साफ खुले नही है; और कई जगा अक्षर .बिलकुल उडगए है. जिससे वांचने वालेको, ठीक ठीक मतलब नही मिलता है; दूसरी खराबी यह है कि, वांचने वाले को कभी किधर सुख करना पडता है, और कभी किधर, इस तकलीफसें भी लोक उस वृaat शोख देख नही शक्ते हैं. तीसरी खराबी यह है कि, जिसके वास्ते पुनरावृति करनेकी खास जरूरतथी. वो खराबी यह है कि, अतीव अशुद्ध छप गया है. बेशक सीसे में जडवाके नमुनेके वास्ते रखना कोई चाहे तो रख शक्ता है, और मकानको शोभाभी देशक्ता है; परंतु जिस फायदेके वास्ते ग्रंथकर्त्ताने
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बनायाहै, वो फायदा नही पहुंच शक्ताहै. इस वास्ते ग्रंथकर्तीकी आज्ञानुसार पढने वालेको सुगमता होनेके वास्ते, वृक्षकी ढब हटाकर, किताबकी ढवपर लिखा गयाहै, तोभी नामतो वोही रखाहै. क्योंकि, प्रयम “जैनमत वृक्ष" के नामसेंही प्रसिद्ध होचुकाहै. और अब इस किताबके साथभी, छोटासा वृक्ष, दिया गयाहै; जिसमें नंबर दिये है, उस नंबरका व्यान प-- ढनसें, पढने वालेको ठीक ठीक गता लग जाताहै. इस वास्ते सजन पुरुषोंको चाहिये कि, अथसें इति तक, इस ग्रंथको देखके, ग्रंथकर्ताके प्रयासको सफल करें.
संवत्-१९४९ फाल्गुन शुक्ला दशमीहाल मुकाम गुरुका झंडीयाला
जिल्ला अमृतसर
देश पंजाब. .. मुनि-वल्लभ विजयने लिखा
ग्रंथकर्ताकी आज्ञासें.
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.
शुद्ध
..
शुद्धिपत्र. पृष्ट लीटी. अशुद्ध
१ २ श्री वीतरागायन मोस्तु श्री वीतरागाय नमोस्तु - ४ १५ नित्य प्रतिचार निसप्रतिचार सुना तेथे
सुनातेथे उच्चार न
उच्चारन ५ २० आ हिताय . आहितामय १२ आवश्य कादि आवश्यकादि
१. सर्वव्य वच्छेद हो गये सर्व व्यवच्छेद होगये ८ २ भीन
भी न ८ ११ कितिस
कि तिस १७ हितेठ विया असंज हिते ठविया असंज , १८ काहि आतेहिं - काहिआ तोह २ धर्म काव्य
धर्मकाव्य ७ ब्राह्मणा भासोंने ब्राह्मणाभासोंने
मरुत ९ ब्राह्मणा भासोंके बाह्मणाभासोंके १० सौ निकोंकीतरे सौनिकोंकीतरे
११ ब्राह्मणा भास वाह्मणाभास , १३ मरूत
मरुत
.
सुनातहां १६ २ विद्वंस १५ १० यूछाकि, १६ ५. परसस्पर ... १५ होवे?
सुनाताहूं विध्वंस पूछा, कि, परस्पर
होवे.
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(२)
१७ ११ कुक्कुडके .
कुकडके मारके
गईकि
, १८ मारके १९ १ गइकि १९ २० शिख लायाथा २० ७ धर्मो पदेष्टाका
शिखलायाथा धर्मोपदेष्टाका
च्छेद
मेरेकों
गुरुन्तीतरें
२१ १६ परेकों
१७ गुरूकीतरें
गुरुजीने
२३
१८ गुरू
४ गुरूजीने १३ गुरूवाख्य दिति ७
गुरुख्यिदिति
इस
२४
बनाइ तेरेंसे असुर
बनाई तेरेसें असुर
२५ १४
पुछा, कि
कहा, कि
पुछाकि कहाकि, दिती सुलासाका राजा ओमेसुं
दिति सुलसाका राजाओमेंसं
२६ १०
गइ
जिनोंसें
जीनासे
मधुपिंगलनामामेरा
मधुपिंगलनामा मेरा
वनाई
वनाइ
लक्षणहीन
लक्षणहिन
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२८ ४ असर ३० १० देखाता
असुर दिखाता
गई
द्वपायन ^, नामकेंसे
१८ सापित ,, १ पीप्पलाद , १२ करण । १८ पीपलके ३५ १ आइ , ४ अपणे
३ उप्तत्ति
११ अवठ ३७ ४ पिहिता श्रव" १८ मुनिका " , जीसका ३८ ६ प्रव्रज्जा ३९ १ .आइ. ४० २ ककुदाचार्य ४१ १५ सौ
,' १७ हू आपीछे ४१ १८. ईनाकी
" १९० सरिषी ४२ १३ श्री महावीरके । ४३ १८ उपसर्ग हर
द्वैपायन नामसे शापित पिप्पलाद करने पिप्पलके आई अपने उत्पत्ति औवट पिहिताश्रवमुनिका जिसका प्रव्रज्या
आई
कक्कसरि सो । हुआ पीछे इनोंकी सरिखी श्रीमहावीरके उपसर्गहर
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पाठी थे
४४ ११ हू ४४ २० पाठ कथे ४५ ३ हो गये
९ सूत्रो परिभाष्य ४६ ३ जीसमें
७ वनवाइ
बनवाइ
होगये सूत्रोपरिभाष्य जिसमें
वनवाई
वनवाई
४८ १८ स्थावर
स्थविर
२० हारीयमा लागारी ५१ १७ आर्यज्यंत ५४ ८ शत्रुज्य
हारीयमालागारि आर्यजयंत शत्रुजय
, १३ कोरंटन ५६ ६ मुलसंघ
, १६ बहु तही ५७ १ (५७)
५८ १५ मूलश्रुद्धि ६१ ७ गुरूभाइ ६२ १२ श्री जिनलाभसरि
१९ मुनिचंद्रमुरिके : २० निकला ६७ ४ नहीं . ७१४ यहा सें
कोरंट मूलसंघ बहुतही (५७) (४०) मूलशुद्धि गुरुभाइ श्री जिनलाभरि मुनिचंद्रसूरिके निकालानही अंगी यहांसें
RA
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॥श्री वीतरागायन मोस्तुतराम् ॥ "अथ श्री जैन मत वृक्षः”
र सपा
(१)
जैनमत के शास्त्रानु लार यहजगत् गवाहसे अनादि चला आताहै, और सत्य धर्म के उपदेशकभी प्रवाहसें अनादि चले आतेहै. इस संसार में अनादि से दोदो प्रकारका काल प्रवर्तताहै, एक अवप्पि णी काल, अर्थात् दिन दिन प्रति आयुः, बल, अवगाहना प्रमुख सर्व वस्तु जिसमें घटती जातीहै, और दूसरा उत्सप्पिणी काल, जिसमें सर्व अच्छी वस्तुको वृद्धि होती जातीहै. इन पूर्वोक्त दोनुं कालोंमें अर्थात् अवपिणी-उत्सप्पिणीमें, कालके करे छ छ विभागहै. अवसर्पिणीका प्रथम, सुषम सुषम, (१) सुषम, (२) नुपम दुषम, (३) दुषम सुषम, (४) दुषम, (५) दुषमा दुषम, (६) है. उत्सर्पिणीमें छहो विभाग उलटे जानलेने. जब अवसर्पिणी काल पूराहोताहै, तब उत्सर्पिणी काल शुरू होताहै. इसीतरें अनादि अनंत कालकी प्रवृत्तिहै; और हरेक अवसर्पिणी उत्स
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पिणी के तीसरे चौथे आरे अर्थात् काल विभागमें, चौवीस २४ अरिहंत तीर्थकर, अर्थात् सच्चे धर्म के कथन करनेवाले उप्तन्न होते है. ऐसे अतीत कालमें अनंत तीर्थकर हो गयेहै, और आगामी कालमें अ. नंत होवेमे; परंतु इस अवसर्पिणीकालमें छ हिस्सों मलं तीसरा हिस्सा थोडासा शेष रहा, तव नाभिकुलकरकी मरुदेवा भार्याकी कूरबसें श्री ऋषभदेवजीने जन्म लीया. तिस ऋषभदेवसे पहिले, सवें मनुष्य वनफल खातेथे, और वनोंहीमें रहतेथे, तथा धर्म, अधर्म, आदि जगत् व्यवहार को अच्छीतरेंसें नही जानतेथे. श्री ऋषभदेवकों पूर्व जन्मके करे जपत पादिके फलसें, गृहस्था वस्था मेही, मति, (१) श्रुति, (२) और अवधि, (३) यहती न ज्ञानथे, तिनके बलसें राज्य व्यवहार, जगत् व्यवहार, विद्या, कला, शिल्प, कर्म, ज्योतिष, वैदिकादि सर्व व्यवहार श्री ऋषभदेवनें प्रजाकों बतलाये. इसहेतुसें श्री ऋषभदेवके ब्रह्मा, ईश्वर, आदीश्वर, प्रजापति, जगत् स्रष्टा, आदिनाम प्रसिद्ध हुए. ऋषभदेवनें राज्य अपने बडे पुत्र भरतकों दीना, जिसके नामसे यह भरतखंड प्र. सिद्ध हुआ. और आप स्वयमेव दीक्षालेके, पृथिवी
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ऊपर विचरने लगे. जबउनोंकों, केवलज्ञान, उत्पन्न हुआ, तब तिनोंने प्रजाकों धर्मो पदेशदीया- इन अवसर्पिणी कालमें, प्रथम, ऋषभदेवसे ही इस भास्त वर्षमें जैन धर्म प्रचलित हुआ, इसी हेतुसें श्री ऋषभदेवसे, इस इतिहास (तवारिख) रूप वृक्ष का. लिखना शुरू कीया है. इनोंके, ८४, गणधर, और, ८४, गच्छ हुए. इनोंका विशेष वृत्तांत जंबूदीप प्रज्ञप्ति, आवश्यक सूत्र, त्रिषष्टि शलाका पुरूष चरितादि ग्रंथों में है. अ-श्री ऋषभदेव स्वामीका शिष्य मरिची जव संयमपालने सामर्थन हुआ,तब तिसने स्वकल्पना सें परिव्राजकका वेष धारण करा. तिसका शिष्य कपिलमुनि हुआ, तिसने अपने आसुरिनामा शिष्यकों पंचवीश (२५) तत्वोंका उपदेश करा. तब आसुरिने षष्टि तंत्रनामा अपने मतका पुस्तक स्चा, तिस आसुरिका भारि नामा शिष्य हुआ, तिस पीछे तिस मतके ईश्वर कृष्णादि आचार्य हुए.तिनमें एक 'संख' नामा बहुत प्रसिद्ध आचार्य हुआ, तिसके नामसें कापिलमतकों लोक 'सांख्यमत' कहने लगे. यह सांख्यमत निरीश्वरी
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कहा जाता है. प. पतंजलि मुनि तिनकें मतमें हूआ, तिसले वर सांख्यमत, और योगशास्त्र बलाया, पहिलक यज्ञ किसीभी सांख्यामतवालने नहीं निकाला है. यह वृत्तांत आवश्यक
सूत्रादि ग्रंथों में है। व-श्री ऋषभदेव को पुत्र भरतने पसंडवा राज्य,
और चक्रवर्तिकी पदी पाई, तिसने श्री ऋषभदेवके उपदेशसें ऋषभदे भगवान्की स्तुति, और गृहस्थ अर्थात् श्रावक धर्म के निरूपक चार वेद, श्रावक नाह्मणों के पढने वास्ते रचे, तिनके चार नाम रख्खे. "संसारादर्शनवेद, (१) संस्थापनपरामर्शलवेद, (२) तलावबोधवेद, (३) विद्याप्रबोधवेद, (४)" ईन चारों वेदोंका पाठ, भरत महाराजा के मेहेल के श्रावक लोक पठन पाठन करतेथे, और भरत राजा के कहने से लिख प्रतिचार वाक्य भरतकों सुना तेथे यथा जितो भवान्, (१) र्द्धतेभयं, (२) तस्मात् , (३) महान माहन, (४) इनमें पीछले माहन' शब्द के वारंवार उच्चार न करने में लोकोंने तिन श्रावकों का नाम माहन, और ब्रह्मचर्य के पालने से उन हीमाहनोंका नाम ब्राह्मण प्रसिद्ध करा. यह चारों
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na
( ५ ) आर्यवेद, और सम्यग् दृष्टि ब्राह्मण, यह दोनों वस्तु ये श्री सुविधिनाथ पुष्प दंततक यथार्थ चली. तथा जब श्री ऋषभदेवका कैलास (अष्टापद) पर्वत के उपर निर्वाण हूआ, तब इंद्रादि सर्व देवता निर्वाण महिमा करने को आये. तिन सर्व देवताओंमें सुं अभिकुमार देवताने श्री अषमदेवकी चितामें अनि लगाई. तबसें ही यह श्चति लोकमें प्रसिद्ध हुई है. "अमि सुखा वै देवाः” अर्थात् अग्निकुमार देवता सर्व देवताओंमें मुख्य है. और अल्प बुद्धियोंने तो यह श्रुतिका अर्थ ऐसा बनालीया है, कि अमि जो है, सो तेतीसकोड ३३०००००००, देवताओंका मुख है. और जब देवताओंने श्री ऋषभदेवकी दाढा वगैरे लीनी, तब श्रावक ब्राह्मण मिलकर देवताओंकों अति भक्तिसे याचना करते हुए, तब देवता तिनकों बहुत जान करके बडे यत्नसें याचनासें पीडे होए देखकर कहते हूए कि, अहो याचकाः ! अहो याचकाः! तब हीसे ब्राह्मणोंकों याचक कहने लगे. तथा ब्राह्मणोंने श्री ऋषभदेवकी चितामेंसें अनि लेकर अपने अपने घरों में स्थापन करा, तिस कारणसें ब्राह्मणकों आ हितामय कहने लगे. तथा श्री ऋषभ
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देवकी चिता जले पीछे दाढादिक सर्वतो. देवता ले गये, शेष भस्म अर्थात् राख रह गई, सो ब्राह्मणों ने थोडी थोडी सर्व लोकोंकों दीनी, तिस राखको लोकोंने अपने मस्तक उपर त्रिपुंड्रा कारसें लगाई, तब सें त्रिपुंड्र लगाना शुरू हुआ. यह सर्व वृत्तांत आवश्यक सूत्रादि ग्रंथोंमें है.
(२) श्री अजितनाथ अरिहंत, तिनके ९५ गणधर, और, ९५ गच्छ गणधर उसकों कहते है, जो प्रथम बड़े शिष्योंमें द्वादशांगीके जानकार, और १४ चौदह पूर्व के गूंथने अर्थात् रचने वाले होते है. __ श्री अजितनाथ अरिहंत के वखत में दूसरा सगर चक्रवर्ती हुआ. यह कथन आवश्य कादि सूत्रों में है.
श्री संभवनाथ अरिहंत, तिनके १०२, गणधर, और, १०२, गच्छ. जिन साधुओंकी एक सरिषी वांचना होवे, तिनका समुदाय; अथवा घणे कुलाका समूह होवे, सो,गच्छ; अर्थात् साधुओका समुदाय. यह कथन श्री आवश्यक सूत्रादि ग्रंथों में है.
श्री अभिनंदननाथ अरिहंत, तिनके ११६, गण
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थर, और, ११६, गच्छ. आवश्यकादौ.
श्री लुमतिनाथ अरिहंत, तिनके १००, गणधर, और, १००, गच्छ. आवश्यकादि सूत्रे.
श्री पन प्रभ अरिहंत, तिनके १०७, गणधर, और, १०७, गच्छ. आवश्यकादौ.
(७) श्री सुपार्श्वनाथ अरिहंत, तिनके ९५, गणधर, और, ९५, गच्छ. आवश्यकादौ.
श्री चंद्रप्रभ अरिहंत, तिनके ९३, गणधर, और, ९३, गच्छ. आवश्यकादौ.
श्री सुविधिनाथ पुष्पदंत अरिहंत, तिनके ८८, गणधर, और, ८८, गच्छ. यह कथन श्री आवश्यकादि सूत्रों में है. अ-श्री सुविधिनाथ पुष्पदंत अरिहंत के निर्वाण हुआं पीछे, कितनेक कालतक, जैनशासन, अर्थात् द्वादशांग गणिपिडग, साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, और चारों आर्यवेद, और तिन के पठन पाठन
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(८)
करनेवाले जैन ब्राह्मण, यह सर्वव्या इच्छेदलले गरे भारत वर्षमें जैन धर्मका नाम निशान भील रहा, तबतिन बाह्मणोंकी संतानची तिनकों लोकोंने कहा, कि हमकों धर्मोपदेश करो, तवतिन ब्राह्मणाभासोंने, अनेक तरेकी श्रुतियां स्थी. तिनमें, इंड, वरुण, पूषा, नक्त, अमि, वायु, अधिनौ, उषा, इत्यादि देवताओंकी उपासना करनी लोक उपदेश करा. और अनेकतरेके राजन वाजन करवाए.
और कहने लगेकि, हमनें इसीतरें अपने वृद्धों के सुखसें सुना है. इस हेतुसे तिलश्लोकोंका नाम श्रुति रख्खा, क्यों किति स समय सत्य ज्ञानवाला, कोइ भीनहींथा, इस वास्ते जो तिनकों अच्छा लगा, सोइ अपना रक्षक देवमानके तिसकी स्तुति करी. और कन्या, गौ, भूमी, आदि दानके पात्र अपने आपकों ठहराये, और आप जगद्मुझसर्वोपरि विद्यावंत बन गये. और लोकोंमें, पूर्वोक्त अपनी रची श्रुतियोंकों, वेदके नामसें प्रचलित करते हूए. ऐसें सांप्रतिकालमें माने ब्राह्मणोंके वेदकी उत्पत्ति हूइ. पीछे अनेक तरेकी श्रुतियां रचते गये, और मनमाना स्वकपोल कल्पित व्यवहार चलाते गये और
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अपने आपको सर्वमें मुख्य ठहराये. यह कथन श्री - भगवती सूत्र, आवश्यक सूत्र, आचार दिनकर आ
दि ग्रंथों में है... ..
श्री शीतलनाथ अरिहंतः तिनके ८१, गणधर, और, ८१, गच्छ. आवश्यकादौ.. अ-जब श्री शीतलनाथ दशमें अरिहंत हुए, तब तिनोंने फिर जैनधर्मकी प्रवृत्ति करी; परंतु जंगली ऋषि ब्राह्मणोंने तिनका उपदेश न माना किंतु भगवान् शीतलनाथके विरूद्ध प्ररूपणा करके, वेद धर्म ऐसा नाम रखके एकमत चलाया. तिसमतको बहुत लोक मानने लगे, तब वेद धर्म जगत्में प्रसिद्ध हुआ. ऐ सेंही श्री धर्मनाथ तीर्थकर भगवान तक सर्व जगे कितनेक काल जैन धर्म व्यवच्छेद होता गया, और वेद धर्म प्रबल हो गया. यदुक्त मागमे-"सिरि भरहचक्कबट्टी आयरिय वेयाण विस्सु. उप्पत्ति माहण पढणत्यमिणं कहियं सुहषाण विवहारं ॥ १॥ जिणतित्थेबुच्छिण्णे मिळते माहणे हिंतेठ विया असंजयाण पूआ अप्पाणं काहि आलेहिं ॥२॥” इनदोनों गाथाका भावार्थ यहहै. श्री ऋषभदेवके पुत्र भरत
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(१०) चक्रवर्तिसें आर्य वेदोंकी उत्पत्ति हुई. भरतने ब्राह्मणों के पढने वास्ते, शुभध्यान, और श्रावक धर्म काव्य . बहार चलाने वास्ते बनाए. जब सातजिनों के अंतरोमे, (श्री सुविधिनाथ पुष्पदंत के निर्वाणसे, श्री धर्मनाथजी के तीर्थ प्रवर्तितक,) तिनोंके तीर्थके व्यवच्छेद हूये, अर्हन धर्मभी व्यवच्छेद हुआ तबतिन ब्राह्मणा भासोंने मिथ्या वेद बनाके प्रवर्ती ए. और अपनी पूजा भक्ति करवाइ. असंजतिहो के जगत् में पूजवाए. यह असंजति पूजानामा आश्चर्य ऊत्पन हूआ. ईनोंका विशेष वृत्तांत आवश्यक सूत्रादि शास्त्रों में है.
(११) __ श्रीश्रेयांसनाथ अरिहंत, तिनके ७६, गणधर, और ७६, गच्छ. आवश्यकादौ.
(१२) श्री वासुपूज्य अरिहंत, तिनके ६६, गणधर,और, ६६, गज्छ. आवश्यकादौ.
श्री विमलनाथ अरिहंत, तिनके ५७, गणधर, आर, ५९ मत लपलादी.
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- . . . (१४) .
श्री अनंतनाथ अरिहंत, तितके ५०, गणधर, और ५० गच्छ. आवश्यकादौ.
(१५) श्री धर्मनाथ अरिहंत, तिनके ४३, गणधर और, ४३, गच्छ. आवश्यकादौ.
(१६)
श्री शांतिनाथ अरिहंत, तिनके ३६, गणधर, और, ३६, गच्छ. आवश्यकादौ.
(१७) श्री कुंथुनाथ अरिहंत, तिनके ३५, गणधर, और, ३५, गच्छ. आवश्यकादौ. .
श्री अरनाथ अरिहंत, तिनके ३३, गणधर, और, ३३, गच्छ. आवश्यकादौ.
(१९) श्री मल्लिनाथ अरिहंत, तिनके २०, गणधर, और, २०, गच्छ. आवश्यकादौ.
(२०) श्री मुनिसुव्रत स्वामी अरिहंत तिनके १८, ग
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(१२)
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णधर, और, १८ गच्छ. ' अ-लंकाका राजा रावण, जब दिगविजय करने वास्ते देशोंमें चतुरंग दललेकर, राजाओंकों अपणी आज्ञा मना रहाथा; इस अवसरमें, नारद मुनि,लाठी सोटे, ओर, लात, धूसयोंकापीवाहूआ, पुकारकरता हूआ, रावण के पास आया, तब रावणने नारदकों
छाकि, तुजको किसने पीटा है? तब नारदने कहाकि, राजपुर नगरमें मरूत नामा राजा है, सो मिथ्या दृष्टि है, वो ब्राह्मणा मासोंके उपदेशसे यज्ञ करने लगा. होम के वास्ते, सौ निकोंकीतरे, वे बा. ह्मणा भास, अरराट शब्द करते हू, जैसें विचारे पशुओंकों यज्ञमें मारते दूओ, मैनें देखे, तब मैंने आ. काशसें उतरके जहां मरूत राजा ब्राह्मणों के साथमें बैठाथा, तहां आकर मरूत राजाकों कहाकि, यह तुम क्या करने लग रहे हो ? तब मरुत राजाने कहा, ब्राह्मणोंके उपदेशसें देवताओंकी तृप्ति वास्ते, और । स्वर्ग वास्ते, यह यज्ञ, मैं, पशुओंके बलिदानसें करताहूं. यह महाधर्म है. (नारद रावणसें कहता है.) तब मैनें, मरुत राजाकों कहाकि,हे राजन् ? जो वेदों में यज्ञ करना कहा है, वो यज्ञ मैं तुमको सुनातां.
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“ आत्मा तो यज्ञका यष्टा अर्थात् करने वाला है तथा तपरूप अग्नि है, ज्ञानरूप धृत है, कमरूप इंधन है, क्रोध, मान, माया, और लोभादि पशु है, सत्य बोलने रूप यूप अर्थात् यज्ञस्तंभ है, तथा सर्व जीवोंकी रक्षा करणी यह दक्षिणा है, ज्ञान, दर्शन, चारित्र यह रत्नत्रयी रूप त्रिवेदी है. यह यज्ञ वेदका कहा हुआ है. जैसा यज्ञ जो योगाभ्यास संयुक्त करे, वो करने वाला मुक्तरूप हो जाता है.औरजो राक्षस तुल्य होके छागादि मार के यज्ञ करता है, सोमरके घोर नरकमें चिरकाल तक महादुःख भोगता है. हे राजन्! तुं उत्तम वंशमें उत्पन्न हुआ है, बुद्धिमान है, इस वास्ते इस व्याधोचित पापसे निवर्त्तन होजा. जे कर प्राणीवधसेंहीजीवोंकों स्वर्ग मिलता होवे, तब तो थोडेही दिनोमें यह जीवलोक खाली हो जावेगा यह मेरा वचन सुनके यज्ञकी अग्निकीतरें प्रचंड हुआ होये ब्राह्मण हाथमें लाठी, सोटेलेकर सर्व मेरेकों पीटने लगे, तब जैसें कोइ पुरुष नदीके पूरसे डरकर दीपेमें चला आता है, तैसें मैं दौडता हूआ तेरे पास पहुंचाहूं. हे रावण, हे राजन् बिचारे ! निरपराधी पशु मारे जाते है, तुं तिनकी रक्षा करणे में तत्पर
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(१४) हो. जैसे मैं तेरे शरणमें बच्चाहू, असें तुं पशुओंकों. भी बचाव. तब रावण विमानले उत्तर के मस्त राजाके पास गया, मरुत राजाने रावणकी बहुत पूजा भक्ति करी, और आदर सन्मान करा. तब रावण कोपमें होकर मरुतराजाको असें कहता हूआ. अरे! तुं नरकका देनेवाला यह या क्या कर रहा है ? क्योंकि धर्म तो अहिंसा रूप सर्वत्र तीर्थकरोंने कहा है. और सोइ धर्ष जगत्के हितका करने वाला है. जब तुमने पशुओंको मारके धर्म समझा, तब तु. मकों हितकारक क्योंकर होवेगा ? इस वास्ते यह यज्ञ तुमकों दोनों लोको अहितकारक है, इसकों छोड़ दो, नहीं तो इस बझका कल तुमकों इस लोकमें तो मैं देताहूं, और परलोकमें तुमारा नरकमें वास होगा. यह सुनकर बरुत राजाने यज्ञ करना छोड दीपा, कोकि समयकी आजा उस वखत जैसी भयंकरथी, कि कोइ उसको उल्लंघन नाह कर सक्ता था. ___ यह कथन, भीमाश्यक सूत्र, आचारदिनकर, विष्टि शलाका सुरूष चरितादि ग्रंथों में है. .
इस पूर्वोक्त कथाला यहभी मालुम होजाताहै,
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. . (१५) कि जो ब्राह्मण लोक कहते है, कि आगे राक्षस यज्ञ विद्वंस कर देतेथे, सो क्या जाने ? रावणादि जबरदस्त जैन धर्मी राजे पशुवध रूप यज्ञ करणा हुडा देतेथे, तबसेंही नाहगोंने पुराणादि शाखों में उन्न जबरदस्त राजाओंकों राक्षसोंके नामसें लिखा है ? तथा यहभी सुनने आया है, कि नारदजीनेभी, मायाके वश जैनगत धारके वेदोकी निंदा करीथी. तोक्या जाने ? इस पूर्वोक्त कथानकका यही तात्पर्य लोकोंने लिख लीया हो ? ब-रावणने नारदकों पूछाकि, जैसा पापकारी पशु वधात्मक यह यम कहांसें चला है, तब नारदजीने कहाकि-शुक्तिमती नदी के किनारे उपर ओक शुक्ति मतीनगरी है.तिसमें हरिवंशीय श्रीमुनिसुव्रत स्वामी तीर्थकरकी औलादमें जब कितनेक राजे व्यतीत हो गये, तब अभिचंद्र नामा राजा हुआ. तिस अभिचंद्र राजाका वसुनामा बेटा हूया. वो वसु महा बुद्धिमान, सत्यवादी, लोकोंमें प्रसिद्ध हुआ. उसी नगरीमें अक क्षीर कदंबक नामा उपाध्याय रहताथा. तिसके पर्वतनामा पुत्र था. उस क्षीरकदंबक उपाध्यायके पास राजाका बेटा वसु, (१) उपाध्यायका
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( १३ )
बेटा पर्वत, ( २ ) और मैं (नारद) हमतीनो पढ़ते थे, अकदा समय, हमतो तीनों जन पाठ करने के श्रमसें. रात्रिकों सो गयेथे, और उपाध्याय जागताथा. हम छत उपर सूतेथे. तब दो चारण साधु ज्ञानवान् आ काशमें परस्पर वार्ता करते चले जातेथे, कि यह क्षीरकदंबक उपाध्याय के तीन छात्रोंमेंसुं दो नरकमें जावेंगें, और एक स्वर्ग मे जायेगा. यह सुनियोंका कहना सुनकरके उपाध्याय चिंता करने लगा, कि जब मेरे पढाये हूये नरकमें जायेंगे तब यह मुजकों बहुत दुःख है, परंतु इन तीनोंमेंसुं नरक कौन जायेंगे ? और स्वर्ग कौन जायगा ? इस बातके जानने वास्ते तीनोंकों एक साथ बुलाये. पीछे गुरुने हम तीनोंकों एकैक पीठिका कुक्कड दीया, और कहदी - याकि इनकों ऐसी जगेमें मारो जहां कोइभी न दे - खता होवे ? पीछे वसु और पर्वत यह दोनों शून्य जगाओंमें जाकर दोनों पीटिके बनाये कुकडोंकों मार ल्याये, और मैं (नारद) उस पीठिके कुडकों लेकर बहुत दूर नगरसें वाहिर चला गया. जहां कोइभी नहीथा, तहां जाकर खडा हुआ, चारों और देखने लगा, और मनमें यह तर्क उत्पन्न हुआ, कि
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(१७)
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गुरु महाराजने तो यह आज्ञा कीनी हैं, कि हे वत्स ! यह कुक्कड, तूं तहां मारी, जहां कोई देखता न होवे, तो यह कुक्कड देखता है, और में भी देखता हूं. खेचर देखते है, लोकपाल देखते है, जानी देखतें है, ऐसा तो जगतमें कोइभी स्थान नही जहां कोइभी देखता न होवे . इस वास्ते गुरुके कहने का यही तात्पर्य है, कि इस कुक्कडका वध नही करना. क्योंकि गुरु पूज्य तो सदा दयावान्, और हिंसासें पराङ्मुख है. निः केवल हमारी परीक्षा लेने वास्ते यह आदेश दीया है. ऐसा विचार करके विनाही मारे कुक्कडकों लेके मैं (नारद) गुरु के पास चला आया, और कुकुडके न मारने का सबब सर्व गुरुकों कहदीया, तब गुरुने मन में निश्चय करलीयाकि, यह नारदं, जैसे विवेकवालाहै, सो स्वर्ग जायगा. तब गुरुजीने मुजकों छातीसें लगाया, और बहुत साधुकार कहा. तथा वसु और पर्वतभी मेरेसें पीछे गुरुके पास आये, और गुरुकों कहते हुये, कि हम कुक्कडकों जैसी जगे मारके आये हैं कि जहां कोइभी देखता नहीथा. तब गुरुने कहा तुमतो देखतेथे, तथा खेचर देखतेथे, तबहे पापिष्टो ! तुमने कुक्कड क्यों मारे ? औसे कहकर गुरु
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( १८ )
ने शोचाकि, पर्वत, और वसुके पढानेकी मेहेनत, मैनें व्यर्थही करी. मैं क्या करूं? पानी, जैसे पात्रमें जाता है, वैसाहीबन जाता है. विद्याकाभी यही स्वभाव है. जवाणोंसे प्यारा पर्वत पुत्र और पुत्रसें प्यारा वसु, यह दोनों नरक में जायगें, तो सुजे फेर घरमें रहकर क्या करणा हैं? असें निर्वेदसें क्षीर कदं TE उपाध्यायने दीक्षा ग्रहण करी, और साधु हो गया. 'तिसके पद ऊपर पर्वत बैठा, क्योंकि व्याख्या करणे में पर्वत as विचक्षणथा. और मैं ( नारद ) गुरु प्रसादसें सर्व शास्त्रों में पंडित होकर अपणे स्थानमें चला आया. तथा अभिचंद्र राजाने राज्य छोडकर संयम लीया, और वसुराजा राज्य सिंहासन ऊपर बैठा. वसुराजा जगत् में सत्यवादी प्रसिद्ध हो गया, अर्थात् वसुराजा जूठ नही बोलता है, औसा प्रसिद्ध हो गया. वसुराजाने भी, अपनी प्रसिद्धि को कायम रखने वास्ते, सत्यही बोलना अंगीकार कीया, वसुराजाको एक स्फाटिकका सिंहासन गुप्तपणे असा मिलाकि - सूर्य के चांदणे में जब वसुराजा उसके ऊपर बैठताथा, तव सिंहासन लोकोंकों बिलकुल नही दीख पडताथा, तब लोकोंमें यह प्र
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( १९) सिद्धि हो गइकि सत्यके प्रभावसें वसुराजाका सिंहासन देवता आकाशमें थांभे रखते है. तब सब राजा डरके वसुराजाकी आज्ञा मानने लग गये, क्योंकि चाहो सची हो, चाहो जूठी हो, तोभी प्रसिद्धि जो है, सो पुरुषों कों जयकारिणी होती है.
एकदा प्रस्तावे, मैं (नारद ) शुक्तिमती नगरीमें गया, उहां जाकर पर्वतकों देखातो, वो, अपणे शिष्योंकों वेद पढा रहा है, और उसकी व्याख्या करता है तब वेदमें एक जैसीश्रुति आइ. “अजैर्यष्टव्यमिति” पर्वतने इसश्रुतिकी असी व्याख्या करी, जो 'अजा' नाम छागका (बकरीका) है तिनोंसें यज्ञ करना, अर्थात् तिनकों मारके तिनके मांसका होम करना. तब मैनें (नारदने) पर्वतकों कहाकि हे भ्रातर! यह व्याख्या तुं क्या भ्रांतिसें करताहै ? क्यों कि, गुरु श्री.क्षीर कदंबकने इसश्रुतिकी जैसी व्याख्या नही करी है; गुरुजीने तो, तीन वर्षका- . धान्य पुराणे जौंका असा अर्थ, यह श्रुतिका करा है. “नजायंतइत्यजाः" जो बोनेसें न उत्पन्न होवे, सो अजा, असा अर्थ श्री गुरुजीने तुमकों, और हमकों शिख लायाथा; वो अर्थ तुमने किस हेतुसें भूला
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(२०) . . दीया? तब पर्वतने कहाकि, तुमने जो अर्थ करा हे, सो अर्थ गुरुजीने नहीं कहाथा, किंतु जो अर्थ मैने करा है, सो अर्थ गुरुजीने कहाथा. तथा निघंटुमेंभी, अजा नाम बकरीका ही लिखाहै. तब मैनें (नारदने) पर्वतकों कहाकि, शब्दोंका अर्थ दो तरका होता है, एक मुख्यार्थ, और दूसरा गोणार्थ. यहां श्री गुरुने गोणार्थ कराया. गुरु धर्मो पदेष्टाका वचन, और यथार्थ श्रुतिका अर्थ, दोनोंकों अन्यथा करके हे मित्र ? तुं महा पाप उपार्जन मत कर. तम फेर पर्वतने कहाकि अजा शब्दका अर्थ श्री गुरुजीने मेपका करा है, निघंटुमें भी जैसेही अर्थ है, इनको उल्लंघन करके तुं अधर्म उपार्जन करता है, इस वास्ते वसुराजा आपणा सहाध्यायी है, तिसकों मध्यस्थ करके इस अर्थका निर्णय करो, और जो जूग होवे,तिसकीजीव्हा च्छेद करणी,जैसी प्रतिज्ञा कही. तब मैनेंभी पर्वतका कहना मान लीया, क्योंकि सांचकों क्या आंच है? तव पर्वतकी माताने पर्वतको छाना कहाकि हे पुत्र! तुं जैसा जूग कदाग्रह
मत कर. क्योंकि मैनेंभी इस श्रुतिका अर्थ तेरे पि, नामें तीन वर्षका धान्यही सुनाहे. इस वास्ते मैंने
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(२१) जो जीव्हा च्छेदकी प्रतिज्ञा करी है, सो अच्छी नही करी, क्योंकि जो विना विचारें काम करता है, वो अवश्य आपदा में पड़ता है. तब पर्वत कहने लगाकि हे मातः! जो मैंने प्रतिज्ञा करी है, वो अब मैं किसी तरेंसेंभी दूर नही कर सक्ताहूं. तब माता अपने पर्वत पुत्रके दुःखकी पीडी हूइ दुःखिनी होकर वसुराजाके पास पहुंची, क्योंकि पुत्रके जीवितव्य वास्ते कौन जैसी है, जो उपाय न करे? जब वसुराजाने अपने गुरुकी पत्नीकों आती देखी तब सिंहासनसे उठके खडा हुआ, और कहने लगाकि, मैनें आज क्षीर कदंबकका दर्शन करा जो माता तुजकों देखी. अब हे मातः? कहो (आजा करो) मैं क्या करूं? और क्या देऊ? तब ब्राह्मणी कहने लगीकि, तूं मुजे पुत्रकी भिक्षा दे; क्योंकि, विना पुत्रके मैंने हे पुत्र! धन धान्य क्या करणा है ? तब वसुराजा कहने लगा हे मातः! मेरेको तो पर्वत पू. जने और पालने योग्य है, क्योंकि, गुरूकीतरें गुरू के पुत्रकी साथ भीवर्तना चाहिये, यह श्रुतिका वाक्य है, तो फेर आज किसकों कालने क्रोधमें आकर पत्र भेजा है, जो मेरे भाइ पर्वतको मारा चाहता है?
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( २२ )
इस वास्ते हे मातः ! तुं मुझे सर्व वृत्तांत कहदे. तब ब्राह्मणीने अपणे पुत्रका अज व्याख्यान, और जीव्हा च्छेदकी प्रतिज्ञा कह सुनाई, और कहाकि, जो तैनें अपने भाइकी रक्षा करनीहो ? तो अजा शब्दका अर्थ मेष अर्थात् बकरी बकरा करना. क्योंकि, महात्मा जन परोपकारके वास्ते अपने प्राणभी दे देते हैं, तो वचनसें परोपकार करने में तो क्याही कहना है ? तब वसुराजाने कहा कि, हे मातः ! मैं मिथ्या वचन, क्योंकर बोलुं ? क्योंकि, सत्य बोलने वाले पुरुष, जे कर अपणे प्राणभी जातें देखे, तोभी असत्य नही बोलते है तो फेर गुरुका वचन अन्यथा करणा, और जूठी साक्षी देणी, इसका तो क्याही कहणा है ? तब ब्राह्मणी ने कहा कि, या तो गुरुके पुत्रकी जान बचेंगी, या तेरा सत्य व्रतका आग्रहही रहेगा; और मैं भी तुजे अपने प्राणकी हत्या दऊंगी. तब वसुराजाने लाचार होकर ब्राह्मणीका वचन माना. पीछे क्षीरकवककी भार्या प्रमुदित होकर अपने घरकों चली गई. इतनेंही में मैं, (नारद), और पर्वत दोनों जने वसुराजाकी सभामें गये. वहां सभामें बडे बडे विद्वान् एकिट्टे मिले, और वसुराजा, सभाके विचमें
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(२३) सभापति होकर स्फाटिकके सिंहासन ऊपर बैठा. तब पर्वतने और मैनें (नारदने) अपनी अपनी व्याख्याका पक्ष सुणाया, और असाभी कहाकि, हे राजन् ! तूं सत्य कहदेकि, गुरूजीनें इन दोनों अर्थों मेंसुं कौनसा अर्थ कहाथा ? तब वृद्ध ब्राह्मणोंने कहाकि, हे राजन् ! तूं सत्य सत्य जो होवे, सो कहदे. क्योंकि, सत्यसेंही मेघ वर्षता है. सत्यसेंही देवता
सिद्ध होते है. सत्यके प्रभावसेंही यह लोक खडा है. _और तुं पृथिवीमें सत्यवादी सूर्यकी तरें प्रकाशक है,
इस वास्ते सत्यही कहना तुमको उचित है. और इससे अधिक हम क्या कहै ? यह वचन सुनकरभी वसुराजाने अपने सत्य बोलनेकी प्रतिज्ञाकों जलांजलि देकर “अजान मेषान गुरुवाख्य दिति” अर्थात् अजाका अर्थ गुरूने भेष (बकरे) कहेथे. ऐसी साक्षी वसुराजाने कही. तब इस असत्यके प्रभावसें . राज्याधिष्टायक व्यंतर देवतानें वसुराजाके सिंहास
नको तोड़के, वसुराजाकों पृथिवी के ऊपर पटकके __ मारा. तब बसुराजा मरके सतमी नरकमें गया. .. ___ “वसुराजाके पीछे राज्य सिंहासन ऊपर वसुराजाके आठ पुत्र, पृथुवसु, (१) चित्रवसु, (२) वासन,
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— (३) शक्त, (१) विभावसु, (५) विश्वावसु, (६) सूर,.. (७) महासूर, (८) अनुक्रमसें गही ऊपर बैठे. तिन : आरोहीकों व्यंतर देवताओंने मार दीये. तब सुव.. सुनामा नवमा पुत्र, तहांसे भागकर नागपुरमें, चला गया. और दशमा बृहध्वज नामा पुत्र, भागकर मथुरांमें चला गया, और मथुरामें राज्य करने लगा. ईस बृहध्वजकी संतानोमें यदुनामा राजा बहु प्रसिद्ध हुआ. ईस वास्ते हरिवंशका नाम छूट गया, और यदुवंश प्रसिद्ध हो गया.
यदुराजाके सूर नामक पुत्र हुआ.तिस सूर राजाके दो पूत्र हुए.शौरी, (१) और सुवीर, (२) शौरीपीता के पीछे राजा बना. शौरीने मथुरांका राज्य अपने छोटे भाइ सुवीरकों दे दीया, और आप कुशावर्ती देशमें जाकर अपने नामका शौरीपुर नगर वसाके राजधानी बनाइ.
शौरीके अंधकविष्ण आदि पुत्र हुए. अधकविठणके दश वेटे हो. समुद्रविजय, (१) अक्षोभ्य. (२) स्तिमित, (३) सागर, (४) हीमवान्, (५) अचल, (६) धरण, (७) पूर्ण, [८] अभिचंद्र, [१] ओर वसुदेव. [१०] समुद्रविजयके बेटे अरिष्टनेमि, जैनम
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२५) तके, २२, बावीसमें तीर्थकर हो. औरभी समुद्रवि- जय के दृढनेमि, स्थनेमि, आदि बेटेथे.
वसुदेवजीके बेटे बडे प्रतापी कृष्ण वासुदेव और बलभद्रजी हूओ. सुवीरनामा जो सूर राजाका दूसरा पुत्र था, उसका बेटा भोजवृष्णि हुआ: भोजवृष्णिका
उग्रसेन, और उग्रसेनका बेटा कंस हूआ. ...... वसुराजाका नवमा पुत्र सुवसु, जो भागके ना
गपुर गयाथा, तिसका पुत्र बृहद्रथनामा हुआ, तिसने राजगृहमें आकर राज्य करा. तिसका बेटा जरासिंध हूआ.” यहप्रसंगसे लिखदीया है,
तब नगरके लोक, और पंडितोने पर्वतका बहुत उपहास करा,और पर्वतको कहा कि तू जूठा,क्योंकि तेरे साक्षी वसुकों जूठा जानकर देवताने मारदीया, इस वास्ते तेरेंसें अधिक पापी कौनहै ? असें कहकर लोकोंने मिलकर पर्वतकों नगरसे बाहिर निकाल दीया. तब महाकाल असूर, उस पर्वतका सहायक हुआ रावणने नारदकों पुछाकि वो महाकाल अ- सुर कौनथा ? तब नारदने कहा कि, यहां चरणायु- . ___ गल नामा नगर है, तिसमें अयोधन नामा राजा, : था. तिसकी दिती नामा भार्या थी. तिसकी सुलसा ..
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( २६ )
नामक बहुत रूपवती बेटी थी. तिस खुलासाका स्व: यंवर, उसके पिता अयोधन नामा राजाने करा. उहाँ और सर्व राजे बुलवाये. तिन सर्व राजा ओस सगर राजा अधिक था. तिस सगर राजाकी मंदोदरी नामा रणवासकी दरवाजेदार सगरकी आज्ञा से प्र तिदिन अयोधन राजा के आवास में जाती हुई. एक दिन दिति घरके बागके कदली घरमें गई. और सुलसाके साथ मंदोदरी भी तहां आगई. मंदोदरी, दिति और सुलसाकी बातां सुननेके वास्ते तहां छिप गइ. दिति सुलसाको कहने लगी है बेटी ? मेरे म नमें इस तेरे स्वयंवर में बडा शल्य है, तिसका उद्धार करना तेरे अधीन है, इस वास्ते तुं मूलसें सुनले.
श्री ऋषभदेव स्वामी के वेटोंमें भरत, और बाहुबली यह दो पुत्र हुआ, तिनमें भरतका पुत्र सूर्ययश, और बाहुबलीका चंद्रयश, जीनोसें सूर्यवंश, और चंद्रवंश चले है. चंद्रवंशमें मेरा भाइ तृणबिंदु नामा हुआ, और सूर्यवंशमे तेरा पिता राजा अयोधन हुआ. अयोधन राजाकी बहिन सत्ययशा नामा तृणबिंदुकी भार्या हूइ, तिसका बेटा मधुपिंगलनामामेरा मत्रीजा. इस वास्ते हे सुंदरी ! मैं तेरेको तिस मधुपिंगलको
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... ( २७ )
. दीइ चाहती हूं. और तूंतो, क्या जाने स्वयंवरमे किसकों देइ जावेगी? मेरे मनमें यहशल्य है, इस वास्ते तुने स्वयंवरमें सर्व राजाओंको छोडके मेरे भतीजे मथुपिंगलकों वरना. तब सुलसाने माताका कहना स्वीकार करलीया. और मंदोदरीने यह सर्व वृत्तांत सुनकर सगर राजाकों कहदीया. तब सगर राजाने अपने विश्वभूति नामा पुरोहितकों आदेश दीया. वो विश्वभूति, बडा कवि था. उसने तत्काल राजा के लक्षणोंकी संहिता बनाइ. तिस संहितामें जैसे लिखाकि जीससे सगर तो शुभ लक्षणोवाला बनजावे, और मधुपिंगल; लक्षणहीन सिद्ध हो जावे. तिस पुस्तकको संदूकमें बंध करके रख छोडा. जब . सब राजा आकर स्वयंवरमें अकिटे हुआ, तब सगर,
की आज्ञासें विश्वभूतिने वो पुस्तक काढा. और सगरने कहाकि जो लक्षणहिन होवे, तिसकों यातो. मारदेना, या स्वयंवरसे बाहिर निकाल देना. यह . कहना सबीने मानलीया. तब पुरोहित, यथा यथा. पुस्तक वाचता गया, तथा तथा मधुपिंगल, अपनेकों अपलक्षणवाला मानकर लजावान होता गया, और अंतमे स्वयंवरसे आपहि निकल गया. तब सुलसा.
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"
ने सगरको वरलीया. और सर्व राजे अपने अपने स्थानोंमें चले गये. और मधुपिंगल, उस अपमानसे बाल तप करके साठहजार (६०००) वर्षकी आयुवाला महाकाल नामा असूर, परमाधार्मिक,देव हूआ. तब अवधि ज्ञानसे सगरका कपट, जो उसने सुलसाके स्वयंवरमें जूठा पुस्तक बनाया था, और अप ना जो अपमान हुआथा, सोदेखा और जाना तब विचार कराकि, सगर राजादिकों कों में मारे तबतिनों के छिद्र देखने लगा. जब शुक्तिमती नगरीके पास पर्वतकों देखा, तब ब्राह्मणका रूप करके पर्वतकों कहने लगाकि, हे पर्वत ? मैं तेरे पिताका मिब्रहूं. मेरा नाम शांडिल्य है. मैं, और तेरा पिता, हम दोनो साथ होकर गौतम उपाध्यायके पास पढेथे. मैने सुनाहै, कि नारदने, और दूसरे लोोंने तुजे बहुत दुःखी करा.अवमै तेरा पक्ष पूर्ण करूंगा औरमंत्रों , करके लोकोंकों विमोहित करूंगा, यह कहकर पर्वतके साथ मिलकर लोकोंकों नरकमें डालने वास्ते तिस असुरने बहुत व्यामोह करे. व्याधि, भूतादिःदोप, लोकोंकों करदीये. पीछे उहां जो लोक पर्वतका बबन मानलेतेथे. उनोंकों अच्छा करदेताया. शां
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"डिल्यकी आज्ञा से पर्वतभी, लोकोंकों अच्छा करने लगा। इस तरेसें उपकार करके लोकोंकों अपने मतमें मिलाता जाताथा: तब तिस असुरने सगर राजाकों, तथा तिसकी राणीयोंकों बहुत भारी रोगादिकका उपद्रव करा, तबतो राजाभी पर्वतका सेवक बना पर्वतने शांडिल्य के साथ मिलकर तिसका रोग शांत करा, और पर्वतने राजाको उपदेश कराकि, हे राजन् ! सौत्रामणिनामा यज्ञ करके मद्यपान, अर्थात् ' शराब पीनेमें दोष नही है. तथा गोसवनामा यज्ञमें अगम्य स्त्री चांडाली आदि तथा माता, बहिन, बेटी आदिसें विषय सेवन करना चाहिये.
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मातृ मेधमें माताका, और पितृमेधमें पिताका, वध, अंतर्वेदी कुरुक्षेत्रादिकमें करे तो दोष नही. तथा कच्छुकी पीठ ऊपर अग्नि स्थापन करके तर्पण करे, कदाचित् कच्छु न मिले तो, शुद्ध ब्राह्मणके मस्तककी टटरी ऊपर अग्नि स्थापन करके होम करे, क्यों: कि, टटरीभी कच्छुकी तरें होती है. तथा इस बात में हिंसा नही है. क्योंकि वेदोंमें लिखा है. “सर्ववै पुरुष वेदं यद्भूतं यद्भविष्यति ईशानोयं सृतत्वस्य यदन्नेना तिरोहति" इसका भावार्थ यह है कि, जो कुछ है,
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सो सर्व ब्रह्मरूपही है. जब एकही ब्रह्म हुआ, तब कौन किसीकों मारता है ? इस वास्ते यथा रुचिसें यज्ञोंमें जीव हिंसा करो, और तिन जीवोंका मांस भक्षण करो. इसमें कुछ दोष नहीं है. क्योंकि, देवो द्देश करनेसें मांस पवित्र होजाताहै. इत्यादि उपदेश देकर, सगरराजाकों अपने मतमें स्थापन करके अं तर्वेदी कुरुक्षेत्रादिमें, वो पर्वत, यज्ञ कराता हुआ. तब महाकाल असुर अवसरपाके, राजसूयादिक यज्ञभी कराता हूआ, और जो जीव यज्ञमें मारे जाते थे, तिनको विमानमे बैठाके, देवमायासें देखाता हुआ. तब लोकोंकोंभी प्रतीत आ गइ. पीछे वो निःशंक होकर जीव हिंसा रूप यज्ञ करने लगे, और पर्वतका मत मानने लगे, सगर राजाभी, यज्ञ करनेमें बड़ा तत्पर हुआ. सुलसा, और सगर, दोनों मरके नरकमें गये, तब महाकालासुरने सगर राजा को मार पीटादिक महादुःख देके अपणा वैर लीयाः इसवास्ते हे रावण ! पर्वत पापीसें यहजीवहिंसा रूप यज्ञ विशेषकरके प्रवर्त्त हुए है. इत्यादिक वृत्तांत श्री आवश्यक सूत्र, श्री हेमचंद्राचार्य विरचित त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित, आचार दिनकरादि ग्रंथोमें विस्तार पूर्वक है..
स
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श्री नामनाथ अरिहंत, तिनके १७, गणधर, और, १७, गच्छ. आवश्यकादौ.. . :.": (२२) .... . .. "श्री अरिष्टनेमि अरिहंत, तिनके ११, गणधर, - और, ११, गच्छ. आवश्यकादौं....... अइन तीर्थकरके समयमें बारांवर्षीय दुर्भिक्ष काल पडाथा, यह कथन श्री महानिशीथ सूत्रमें है. तिस
समय गौतम ऋषि, मगधदेशमें रहताथा. तिसदेश .. में वेदांत मानने वाले लोक, गौतमके पास रहने
लगे, तव परस्पर गौतमके परिवार वाले, और वेदांत ... मानने वाले ब्राह्मणोंकी, ईर्षी उत्पन्न हुई. तब गौः
तमके परिवार वाले गौतमसे कहने लगेकि, यह
वेदांत मानने वाले, अपने मनमें वेदांतका बहुत .. - घमंड रखते है, और हमारी बहुत निंदा करते है.. - तब गोतमन वेदांत खंडन करने वास्ते, न्याय सूत्र . रचे, और तिनसे वेदांतका खंडन कीया. यह नैयाः ।
यिकमत, वेदवेदांतका प्रतिपक्षी है.. ब-व्यासजी, जौ कि, कृष्ण द्धपायन नामकेसे प्र..
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( ३२ ) सिद्ध है. तिसने सर्व ब्राह्मणोंसें सर्वश्रुतिओं एका करके, तिनके चार भाग बनाये. तिनमें प्रथम भाग का नाम “ऋग्वेद" रख्खा, और अपने पैलनामा शिष्यकों दीना. दूसरे भागका नाम “यजुर्वेद" रख्खा और अपने वैश्यंपायननामा शिष्यकों दीनाः तीसरे भागका नाम “सामवेद" रख्खा, सो अपने जैमनिनामा शिष्यकों दीना. और चौथे भागका नाम “अथर्ववेद", रख्खा सो अपने समंतुनामा शिष्यकों दीना.यहांसें ऋग्वेदादिचारों वेद प्रचलित हुए. यह कथन यजुर्वेद भाष्यानुसार प्राय है।। व्यासजीने ब्रह्मसूत्र रचे, तिनसें वेदांत मतका मुख्य आचार्य व्यासजी हूआ. “ यह वेदांत मत हमारी कल्प ना मुजिब, जैन, और सांख्य मतकी छायासें, तथा जैन मतकी प्रबलतामें बनाया सिद्ध होता है. कयों कि, तिनमें (वेदांतमें) वेदोक्त हिंसक यज्ञकी निंदा लिखी है. तथा लोकोंमें जो यह कहावत चलतीहै, कि जैन मत थोडेही दिनोंसें प्रचलित हूआ है, सोभी लोकोकी कहावत इसवेद व्यासके बनाये ब्रह्मसूत्रसे जूही हो गइ है. क्यों कि, वेद व्यासने अपने रचे ब्रह्मसूत्र के दूसरे अध्याय के दूसरे पादके तेतीसमे
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३३, सूत्रमें जैनमतकी स्यांदाद सप्तअंगीका खंडन "लिखाहै, सो सूत्र यहहै. "नैकस्मिन्नसंभवात् ॥३३॥ इस लेखसें सिद्ध होताहै, कि जैनमत वेदव्याससेंभी प्रथम था. जे कर नहोता तो, वेदव्यास अपने । रचे सूत्रोमें खंडन किसका करते ?”
व्यासंजिका जैमनि नामाशिष्य, मीमांसक शास्त्रका कर्ता, मीमांसक मतका मुख्य आचार्य गिना । जाता है. शेष उपनिषदों, और वेदांग, अन्य अन्य ऋषियोंने पीछेसें बनाये है.
तथा व्यासजिका शिष्य वैश्यंपायन, तिसका , , शिष्य याज्ञवल्क्य, तिसकी अपने गुरु वैश्यंपायनसें, तथा अन्य ऋषियोंसें लडाइ हूई, तब याज्ञवल्क्यने यजुर्वेद वमन करा, अर्थात् त्यागदीना, और किसी सूर्यनामा ऋपिसे मिलके नवीन यजुर्वेद रचा, तिसका नाम शुक्ल यजुर्वेद रखा. याज्ञवल्क्यके पक्षमें बहुत ब्राह्मण हो गये, तिनोंने मिलके पहिले । यजुर्वेदका नाम “कृष्ण यजुर्वेद" अर्थात् अंधकाररूप यजुर्वेद रख्खा, और तिसको सापित वेद ** वेदव्यासके करे खंडनका खंडन, और सप्तरंगीका स्वरूप तथा युक्तिद्वारा मंडने, तत्त्वनिर्णय प्रासादये है.
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'ठहराया. पीछे- याज्ञवल्क्यसें, और सुलसासें पीप्पलाद पुत्र उत्पन्न हुआ, तिनका वृत्तांत जैन मतके ग्रंथो में जैसा लिखा है.-काशपुरीमें दो संन्यास णीयां रहती थी, तिसमें एकका नाम सुलसा था, और दूसरीका नाम सुभद्रा था. येह दोनोंही, वेद वेदांगोकी जानकारथी. तिन दोनों बहिनोंने बहुत चादीयोंको चादमें जीते. इस अवसरमें याज्ञवल्क्य परिव्राजक, तिनके साथ वाद करनेकों आया. और आपसमें जैसी प्रतिज्ञा करी किं, जो हारजावे, वो जीतने वालेकी सेवा करे, तब याज्ञवल्क्यनें वादमें सुलसाको जीतके अपणी सेवा करनेवाली बनाई. सुलसाभी रातदिन याज्ञवल्क्यकी सेवा करणे लगी. याज्ञवल्क्य, और सुलसा, यह दोनों यौवनवंत (तरुण) थे, इस वारते दोनोंही कामातुर होके भोगविलास करने लगगये. दोनों काम क्रिडामें मग्न होकर काशपुरीके निकट कुटीमें वास करते थे. तब याज्ञवल्क्य, और सुलसासें पुत्र उत्पन्न हुआ. पीछे लोकोंके उपहासके भयसें उस लडकेकों पीपलके वृक्षके हेट छोडकर दोनों नटके कहीं चले गये. यह वृत्तांत सुभद्रा; जो सुलयाकी बहिन थी, उसने सुणा.
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. . . . . (३५ ) "तब तिस बालकके पास आइ. जब बालककों देखा - तो, वो बालक, पिप्पलका फल स्वयमेव मुखमें पडे
कोंचबोल रहाहै, तब तिसका नाम भी 'पिप्पलाद' ... रख्खा, और अपणे स्थानमें लेजाके यत्नसें पाला, .. और वेदादि शास्त्र पढाये. पिप्पलाद बडा बुद्धिमान
हूआ. तिसने बहुत वादीयोंका अभिमान, वादमें .. हराके दूर करा. तब याज्ञवल्क्य, और सुलसा, पिप्प
लादके साथ वाद करनेकों आया. पिप्पलादने दो
नोंकों वादमें जीत लीये, और सुभद्रा मासीके क- हनेसें जाना कि, यह दोनों मेरे मातापिता है, और " - मुजे जन्मतेको निर्दय होकर छोड गयेथे. जब कि . प्पलाद, बहुत क्रोधमें आया, तब याज्ञवल्क्य, और
सुलसाके आगे मातृमेध पितृमेध यज्ञोंकों युक्तिसें .. श्रुतियोंद्वारा स्थापन करके, पितृमेध याज्ञवल्क्य
कों, और मातृमेधमें सुलसाकों मारके होम करा.यह - पिप्पलादं मीमांसक मतकी प्रसिद्धि करने में मूख्य - आचार्य हुआ. इसका बातली नामा शिष्य हुआ. ' इस तरेसें दिनप्रतिदिन हिंसक यज्ञ बढते गये. जब
से जैन, और बौद्धादिकोंका जोर बढा, तबसें मंद हो - “गये. यह वृत्तांत महीधर कृत यजुर्वेद भाष्यमें, आव
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श्यक सूत्र,त्रिषष्टिशलाका पुरूष चरितादि ग्रंथोमें है.
तथा इस वर्तमान कालमें जो चारों वेद है, तिनकी उत्पत्ति दात्तर मोक्ष मूलर साहिब, अपने बना ये संस्कृत साहित्य ग्रंथों जैसें लिखते है, कि “वेदोंमें दो भाग है. एक छंदो भाग, और दूसरा मंत्र भाग. तिनमें छंदो भागमें इस प्रकारका कथन है, कि जैसें अज्ञानीके सुखसें अकस्मात् वचन निकले हो, और इसकी उत्तलि ३१०० इकतीसो वर्षसें हूइ है, और मंत्र भागकों बने हूए २९०० उनतीसो वर्ष
इन वेदों ऊपर अवट, सायण, महीधर, और शंकराचायोदिकोने भाष्य, टीका, दीपिका आदि. वृत्तिओं रची है, उन माध्यादिकों को अयथार्थ जानकर दयानंद सरस्वती स्वामीने अपने कल्पित, मतानुसार वेदोक्त हिंसा हुपानेके लिये नवीन भा- प्य बनाया है, परंतु पंडित ब्राह्मण लोक दयानंद सरस्वतीके भाष्यको प्रमाणिक नही मानते है. .
(२३) .. .. श्री पार्थनाथ स्वामी अरिहंत, तिनके १०, ग.. णधर और, १० गच्छ. आवश्यकादो.
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म-श्री पार्श्वनाथजीके बडे गणधर श्री शुभदत्तजी, तिनके पाटपर. तिनका शिष्य हरिदत्तजी, तिसके पाटपर आर्य समुद्र, तिसके पाटपर स्वयंप्रभसूरि, तिस स्वयंप्रभसूरिके साधुओंमें एक पिहिता श्रवनामा साधुथा, तिसका बुद्धकीर्तिनामा शिष्यथा, तिसने बौद्ध मत उप्तन्न करा, तिसकी उप्तत्ति दर्श'नसार नामक ग्रंथमें जैसें लिखीहै.
सिरिपासणाहतित्थेसरउतीरेपलासणयरत्थे पिहि- . आसवस्ससीहे महायुद्धोबुद्ध कित्तिमुणी॥१॥तिमिपूरणासणेया अहिगयपव्वज्जावओपरमभट्टे रत्तंबरंधरित्तापवडियंतेणएयत्तं ॥२॥ मंसस्सनस्थिजीवो जहा. फलेदहियडुद्धसकराए तम्हातमुणित्ता भखंतोणात्थिपाविछो ॥३॥मज्जंणवज्जणिज्जंदव्वदवं जहजलंत
हएदंइतिलोएघोसित्तापव्वत्तियंसंघसावज्जं ॥ ४ ॥ : अण्णोकरेदिकम्मअण्णोतंभुंजदीदिसिद्धंतं परिक
प्पिऊणणूणवसिकिच्चाणिस्यमुववण्णो ॥५॥ ... भावार्थः-श्री पार्श्वनाथके तीर्थमें, सरयू नदीके
कांठे उपर पलास नामा नगरमें रहा हुआ पिहिता । श्रवनामा मूनिका शिष्य, बुद्धकीर्तिजीसका नामथा ... एकदा समय सरयू नदीमें बहुत पानीका पूर चढी
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(३८) आया. तिस नदीके प्रवाहमें अनेक मरे हुये मच्छ वहते वहते कांठे ऊपर आलगे. तिनकों देखके तिस बुद्धकीर्तिने अपने मनमें असा निश्चय करा कि, स्वतः अपनेआप जो जीव मर जावे, तिसके मांस खानेमें क्या पाप है ? असा विचार करके, तिसने अंगीकार करी हूइ प्रव्रज्जा व्रतरूप छोडदीनी. अथात् पूर्व अंगीकार करे हूए धर्मसें भ्रष्ट हो कर मांस भक्षण करा. और लोकोंके आगे जैसा अनुमान कथन करा. मांसमें जीव नहीं है, इस वास्ते इसके खानेमें पाप नही लगता है. फल, दहि, दूध, मिसरी (साकर) कीतरें. तथा मदीरा पीने में भी पाप नही है, ढीला द्रव्य होनेसें, जलकीतरें. इस तरेकी प्ररूणा करके तिसने बौद्ध मत चलाया. और यहभी कथन करा. सर्व पदार्थ क्षणिक है, इस बास्ते पाप पुन्यकाकर्ता, अन्य है, और भोक्ता अन्य है, यह सिद्धांत . कथन करा. बुद्ध कीर्तिके दो मूख्य शिष्य हुए. मु. द्गलायन, (१) और शारीपुत्र, (२) इनोंने बौद्ध मतकी वृद्धि करी. यह कथन पाश्चात्य वौद्ध आसरी है. व-श्री पार्श्वनाथजीसें लगाके आज पर्यंत जो पट्टा
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;
( ३९ )
वी, कलागच्छके नामसें चली आई है, सो लि
खते हैं.
१ श्री पार्श्वनाथस्वामी
2 d
२ श्री शुभदत्तगणधर ३ श्री हरिदत्तजी " ४ श्री आर्य समुद्र ५ श्री स्वयंप्रभसूरि ६ श्री केशीस्वामी प्रदेशी नृप प्रतिबोधक ७ श्री रत्नप्रभसूरिउपकेश | २२ वंशस्थापक वीरात् ७०
:
वर्षे
८ श्री यक्षदेवसूरि 3 श्री कक्कसूरि
१६ श्री सिद्धसूरि : १७ श्री रत्नप्रभसूरि १८ श्री यक्षदेवसूरिवीरात् ५८५, बारांवर्षी काल.
१० श्री देवगुप्तसूरि : -११ श्री सिद्धसूरि : १२ श्री रत्नप्रभसूरि १३ श्री यक्षदेवसूरि १४ श्री कंकसूरि १५ श्री देवगुप्तसूरि
१९ श्री कक्कसूरि २० श्री देवगुप्तसूरि २१ श्री सिद्धसूरि श्री रत्नप्रभसूरि २३ श्री यक्षदेवसूरि २४ श्री ककसूरि २५ श्री देवगुप्तसूरि २६ श्री सिद्ध सूरि २७ श्री रत्नप्रभसूरि २८ श्री यक्षदेवसूरि
२९ श्री ककसूरि
३० श्री देवगुप्तसूरि
३१ श्री सिद्धसूरि ३२ श्री रत्नप्रभसूरि
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३३ श्री यक्षदेवसूरि . ४९ श्री कक्कसूरि । ३४ श्री ककुदाचार्य ५० श्री देवगुप्तसूरि विक३५ श्री देवगुप्तसूरि . मात् ११०५ ३६ श्री सिद्धसूरि ५१ श्री सिध्धसूरि ३७ श्री ककसूरि . ५२ श्री कक्कसरि विक्र३८ श्री देव गुप्तसार मात् ११५४ क्रिया ३९ श्री सिध्धसरि . हीन साधुकों गच्छ ४० श्री ककसूरि
वहार काढे हेमाचार्य ४१ श्री देवगुप्तसरि विक्र- के कथनसें.
मात् ९९५ ५३ श्री देवगुप्तसूरि . . ४२ श्री सिध्धसूरि ५४ श्री सिध्धसूरि ४३ श्री ककसूरि पंचप्रमा- ५५ श्री कक्कसूरि विक्रण ग्रंथ कर्ता
मात् १२५२ ४४ श्री देवगुप्तसूरिनव पद
५६ श्री देवगुप्तसूरि
९५७ श्री सिध्धसूरि । प्रकरणकर्ताविक्रमात् ।
मा ५८ श्री कक्कसरि १०७२ ४५ श्री सिध्धसरि . ५९ श्री देवगुप्तसरि ४६ श्री कक्कसरि
६० श्री सिध्धसरि ४७ श्री देवगुप्तसूरि ६१ श्री कक्कसार ४८ श्री सिध्धसरि ६२ श्री देवगुप्तसीर
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... (४१) ६३ श्री सिधसूरि ७२ श्री सिद्धसूरि वि१५६५ ६४. श्री कक्कसूरि७३ श्री कक्कसूरिवि१५९५ ६५ श्री देवगुप्तसूरि७४ श्री देवगुप्तसूरी वि० ६६ श्री सिध्धसूरि विक्र- १६३१
मात् १३३०७५श्री सिध्धसूरिवि१६५५ ६७ श्री कक्कसूरि गच्छ ७६ श्रीकक्कसूरि वि१६८९
प्रबंध ग्रंथ कावि१३७१७७ श्री देवगुप्तसूरि १७२७ ६८ श्री देवगुप्तसूरि ७८ श्री सिधसूरि १७६७ - ६९ श्री सिद्धसूरि विक्रमा-७९ श्री कक्कसूरि १७८७
त् १४७५ ० श्री देवगुप्तसूरि १८०७ ७० श्रीकक्कसूरिवि१४९८८१ श्री सिध्धसरि १८४७
७१ श्री देवगुप्तसूीर वि० ८२ श्री कक्कसूरि १८९१ * * १५२८ इस समय लुपक ८३ श्री देवगुप्तसूरि । मत निकला ८४ श्री सिध्धसूरि
छठे पाट उपर जो केशीस्वामी है, सौ आचार्य, श्री महावीर स्वामी अरिहंत, २४, चौवीशमे तीर्थ करके शासनकी प्रवृत्ति हू आपीछे, श्री वीरके शा
सनमें गिने जाते है. ईनोंकी प्रवृत्ति क्रिया कलापा।। दि सर्व महावीरजीके शासनके साधुओं सरिपी, परं ९ कहनेमें श्री पार्श्वनाथ संतानीय आते है.
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( ४२ ) सातमे पाट उपर जो स्नप्रभसूरि है, सो बडे ही प्रभाविक होये है. इनोंने अपने प्रतिबोधादि द्वारा सवालक्ष १२५०००, जैनी बनाये, और उपकेश [ओसवाल] वंश स्थापन करा. तथा इनोंके प्रतिष्टित दो मंदिर, श्री महावीर स्वामीके अब तक विद्यमान है. एक तो ओसा नगरीमें, जोकि जोधपुर के पास है, और दूसरा कोरंट नगरमें, जोकि एरणपुरके पास है. यह आचार्य श्री महावीरजीके पीछे ७० वर्षे हूए है.
(२४) (१) श्री महावीर वर्द्धमान अरिहंत, तिनके ११ गणधर, और, नव ९ गच्छ. आवश्यकादौ. यहांसें जो पाटानुपाट लिखे जावेंगे, सो, श्री महावीरके शासनके होनेसें, इनोंका अंक श्री महावीरजीसें फिराया गया है.
. (२५) (२) श्रीसुधर्मा स्वामी पांचमागणधर, अमि वैशायन गोत्री, श्री वीरात् २०,वर्षेमोक्ष आवश्यकादी.
(२६) - [३] श्री जंबू स्वामी, श्री वीरात् ६४, वर्षे नि
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(४३ ) 'र्चाण. आवश्यक परिशिष्ट पर्वन आदि ग्रंथो में.
[२७] (४) श्री प्रभव स्वामी, श्री वीरात् ७५, वर्षे स्व- र्ग. परिशिष्ट पर्वन् आदिमें.
(२८) (५) श्री स्वयंभवसूरि, श्री वीरात् ९८ वर्षे स्वगे. इनोंने मनक नामा लघु शिष्यके वास्ते “ श्री दशवैकालिक” नामासूत्र पूर्वोमेंसें उद्धार करके बनाया. यह कथन श्री दशवैकालिक, परिशिष्ट पर्वन् 'आदि ग्रंथों में है.
( २९ )
(६) श्री यशोभद्रसूरि, श्री वीरात् १४८, वर्षे स्वगे. परिशिष्ट पर्वन आदिमें.
__ (७) श्री संभूति विजयसूरि, तथा श्री भद्रबाहुसूरि.श्री भद्रबाहु स्वामी श्री वीरात् १७०, वर्षे स्वर्ग. इनोंने तीन छेद ग्रंथका उद्धार करा, तथा दशनियुक्तियां, भद्रबाहुसंहिता, उपसर्ग हरस्तोत्रादि पूर्वोमेंसें बनाये. आवश्यक सूत्र, परिशिष्ट पर्वन आदि ग्रंथोंमें यह कथन है.
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- श्री संभूति विजयः सूरिके बारा.स्वा प्रथम नंदनभद्र, (१) स्थविर उपनंद, (२) स्थविर ती शभद्र, (३) स्थविर यशोभद्र, (४) स्थावर सुमन भद्र (५) स्थविर गणिभद्र, (६) स्थविर पूर्णभद्र, (७) स्थ विर स्थूलभद्र, (८) स्थविर ऋजुमति, (९) स्थचिर जंबू, (१०) स्थविर दीर्घ भद्र, (११) स्थविर पांडुभद्र (१२). स्थविर नाम आचार्य पद्वीका है, इस वास्त स्थविर कहनेसें आचार्य जाणने. ब - श्री भद्रबाहुस्वामीका प्रथम शिष्य स्थविर गो दास, (१) तिससें गोदास नामा गच्छ निकला, और गोदास गच्छ की चार शाखा हूइ. तामलिप्ति शाखा, (१) कोटिवर्षिका (२) पांडवर्द्धनिका, (३) औ रदासीखपटिका, (४), भद्रबाहु स्वामीका दूसरा शि ष्य स्थविर अभिदत्त, २, तीसरा स्थविर यज्ञदत्त, ३, और चौथा स्थविर सोमदत्त, ४.
Nig
( ३१ )
(८) श्री स्थूलभद्रस्वामी, श्री वीरात् २१५ वर्षे स्वर्ग. इनोंके समय में प्रथम वारांवर्षी काल पडा. श्री. सुधर्म स्वामीसें लेकर श्री स्थूलभद्रस्वामी तक आ स्थविर चौदह १४, पूर्व के पाठ कथे. श्री स्थू
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( ४५ )
लभद्र स्वामी पीछे ऊपरले चार पूर्व, प्रथम वज्र ऋपभ संहनन, और प्रथम समचतुरस्र संस्थान, यह - व्यवच्छेद हो गये. इनोंके समय में नवमें नंदका राज्य था. और इनोंहीके समय में पाणिनी सूत्र कर्त्ता पाणिनी, वार्त्तिकका कर्त्ता वररुचि कात्यायन, और व्याडी, यहतीनो पंडित ब्राह्मण हुए. पाणिनीने इंद्र, चांद्र, जैनेंद्र, शाकटायनादि व्याकरणोंकी छाया ले के पाणिनी सूत्र अष्टाध्यायी रूप रचे. पीछे पतंजलिने चंद्रगुप्त राजाके राज्यमें पाणिनी सूत्रो परिभाष्य रचा. यह कथन परिशिष्ट पर्वन, कौमुदी सरलाटीका, कथासरित्सागर, आवश्यक सूत्र, और इतिहास तिमिरं नाशकादिमें है.
(३२)
(९) श्री आर्य महागिरि, और श्री आर्य सुह स्ति आचार्य. आर्य महागिरि, श्री वीरात् २४५, वर्षे स्वर्ग. इनका शिष्य बहुल, और बलिस्सह. बलिसहका शिष्य तत्वार्थ सूत्रादि ५००, ग्रंथ कर्त्ता श्री उमास्वातिवाचक तिनका शिष्य श्री प्रज्ञापना ( पन्नवणा) सूत्र कर्त्ता श्री श्यामाचार्य. "
श्री आर्यसुहस्तिसूरि, श्री वीरात् २९१ वर्षे स्वर्ग
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( ४६ ) श्री आर्यसुहस्तिके समयमें संप्रति नामा जैन धर्मी राजा हुआ. तिसने सवालक्ष १२५०००, जिन मंदिर बनवाये. जीसमें निनानवे हजार, ९९०००, जीर्ण [पुराने] जिन मंदिरोंका उद्धार करवाया, और छवीश हजार, २६०००, नवीन जिन मंदिर बनवाये. तथा सोने, चांदी, पीत्तल, पाषाण प्रमुखकी सवा कोटि १२५०००००, जिन प्रतिमा बनवाइ. सातसो, ७००, दानशाला बनवाइ. यह कथन परिशिष्ट पर्वन् आदिमें है. अ-आर्य महागिरिक मूख्य आठ शिष्य तिनोंका नाम. स्थविर उत्तर, (१) स्थविर बहुल, और बलिस्सह, [२] बलिस्सहसें उत्तर बलिस्सह गच्छ, और तिसगच्छकी चार शाखा हूइ, तिसके नाम. कौशांबिका, १, सुप्तवर्तिका, २, कोटंबानी, ३, और चंद्रनागरी, ४, तीसरा स्थविरधनार्द्ध, [३] स्थविर श्री ऋद्धं, [४] स्थविर कौडिन्य, [५] स्थविरनाग, [६] स्थविरनाग मित्र, [७] और स्थविरपद् उल्लुकरोहगुप्त, [८]. इस रोहगुप्तनें द्रव्य, गुणादि षट् पदार्थ माननेवाला वैशेपिक मत निकाला. यह कथन श्री आवश्यक सूत्र, कल्पसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र. सम्यक्त्व सप्ततिका
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(४७) आदि ग्रंथों में है. ब-श्री आर्य सुहस्तिके मुख्य शिष्य, १२, बारां स्थ- विर हूओ. [१] आर्यरोहण स्थविर, तिससे उद्देह गच्छ निकला. उद्देह गच्छकी ४ चार शाखा, और छ, ६, कुल हूओ. __“शखाओं के नाम.” उदंबरिधिया शाखा, १, मासपरिका, २, मति पत्रिका, ३, और पन्नपत्तिया.४ _ “कुलोंके नाम.” नागभूत कुल, १, सोमभूत, २, उल्लगच्छ, ३, हस्तलिहं, ४, नंदिजम, ५, और परिहास कुल. ६. . [२] स्थविरभद्र यश, तिसमें ऋतुवाटिकागच्छ, तिसकी चार शाखा, और तीन कुल..
“शाखाओंके नाम.” चंपिजियाशाखा, १, भदिजिया, २, काकंदिया, ३, और मेहलिजिया. ४,
"कुलोंके नाम.” भद्दजसिय, १, भद्दत्तिय, २, यशभद्र. ३.
(३) स्थविरमेघगणि. (४) स्थविर कामर्द्धि, तिससे वेषवाटिका गच्छ, तिसकी चार शाखा, और चार कुल..
" शाखाओंके नाम.” सावथिया शाखा, १, रज
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( ४८ ) पालिया, २, अंतरिजिया, ३, और खेमलिजिया... ___“कुलोंके नाम.” गणियं, १, महियं, २, कामद्वियं, ३, और इंदपुरगं. ४. ___(५) स्थविर सुस्थित, और (६) स्थविर सुप्रतिबुद्ध. इन दोनोंसें कोटिक गच्छ निकला. तिसकी चार शाखा, और चार कुल हूओ. ___ “शाखाओंके नाम." उच्च नागरिशाखा, १, विद्याधरी, २, वयरीय, ३, और मजिमिल्ला. ४. ___“कुलोंके नाम.” बंभलिज, १, वथ्थलिज, २, वाणिज्ज, ३, और पएह वाहण, ४.
(७) स्थविर रक्षित. (८) स्थविर रोहगुप्त. (९) स्थविर ऋषिगुप्त, तिससे माणव गच्छ, तिसकी चार शाखा, और तीन कुल. ___“शाखाओं के नाम.” कासवज्जिया, १, गोयमज्जिया, २, वासठिया, ३, और सोरठिया, ४.
"कुलोंके नाम.” ऋषिगुप्त, १, ऋषिदत्तिक, २, : और अभिजयंत. ३.
(१०) स्थावर श्री गुप्त, तिससें चारण गच्छ, तिसकी, ४, चार शाखा, और सत, ७, फुल.
"शाखाओं के नाम." हारीयमा लागारी, १,
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संकासिया, २, गवेधुआ, ३, और विज्जनागरी. ४. ___"कुलोंके नाम.” वच्छलिज्ज, १, पीइधम्मीय, २,
हालिज्ज, ३, पुफ्फमित्तिज, ४, मालीज्ज, ५, अज्जवेडीय, ६, और कएह सह. ७. ____ (११) स्थविर ब्रह्मगणि. (१२) स्थविर सोमगणि. कल्पसूत्रादौ.
(३३) (१०) श्री सुस्थितसूरि, तथा श्री सुप्रतिबुद्धसूरि. - यहांसें निग्रंथ गच्छका दूसरा नाम कौटिक गच्छ
हुआ. अ-श्री सुस्थित सुप्रति बुद्धके पांच स्थविर हुए. (१) स्थविर इंद्रदिन्न. (२) स्थविर प्रिय ग्रंथ, तिसमें माध्यमिका शाखा निकली. (३) स्थविर विद्याधर गोपाल, तिससे विद्याधरी शाखा निकली. (४) स्थ-. विर ऋषिदत्त. (५) स्थविर अरिहदत्त.. ... .. . ब-श्री सुस्थित सुप्रतिबुद्ध के समयमें पन्नवणा सूत्र ___कर्ता श्री श्यामाचार्य हूए. तिनोंका श्री वीरात् ,
३७६, वर्षे स्वर्ग. कल्पसूत्र पट्टावल्यादौ. '...
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( ५० )
[३४]
(११) श्री आर्य इंद्र दिन्नसूर, कल्पसूत्रपट्टाव
ल्या दौ.
(३५)
(१२) श्री आर्य दिन्नसूरि. कल्पसूत्रपट्टावल्या दो ( ३६ ) (१३) श्री आर्यसिंहगिरि. अ - आर्यसिंहगिरिका शिष्य ( १ ) स्थविरंधन गिरि ( २ ) स्थविरआर्यवज्रस्वामी, तिनोंसें वयरी शाखा निकली. (३) स्थविर आर्य समित, तिनसें ब्रह्मदीपिका शाखा निकली. (४) स्थविर अरिहदिन्नः (५) स्थविर आर्य शांति श्रेणिक, तिनसें उच्चनागरी शाखा निकली. आर्य शांतिश्रेणिकके चार शिष्य. (१) स्थविर आर्य श्रेणिक, तिससे आर्यश्रेणिक शा खा. निकली. (२) स्थविर आर्यतापस, तिससे आर्य तापसी शाखा. (३) स्थविर आर्य कुबेर, तिससे आर्य कुवेरी शाखा. (४) स्थविरं आर्य ऋषिपालित, ति ससें आर्य ऋपिपालित शाखा. कल्पसूत्रपट्टावल्यादौः व-श्रीवरात, ४५३, वर्षे गर्छभिल्ल राजाका उच्छेदक दूसरा कालिकाचार्य: श्रीवीरात् ४५३, वर्षे भृगुकच्छ
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( ५१ ) (भडौच) में विद्याचक्रवर्ति श्रीआर्यखपुटाचार्य. __श्रीवीरात ४६४-४६७ वर्षे आर्यभंगुआचार्य, वृद्धवादी, पादलिप्तसूरि, तथा विक्रमादित्य प्रतिबोधक श्री सिद्धसेन दिवाकर. श्रीवीरात्, ४७०. वर्षे विक्रमादित्य. यहवृत्तांत प्रबंध चिंतामणि, आ. वश्यक सूत्र, आचारप्रदीपादि ग्रंथोमें हैं.
(३७)
(१४) श्री वज्रस्वामी, श्री वीरात्, ५८४, वर्षे स्वर्ग. इनोंके समयमें, १०, मापूर्व, चौथा संहनन, और चौथा संस्थान, यहव्यच्छेद हो गये. तथा इनोंके समय दूसरा बारांवर्षी काल पडा. इनोंका वृत्तांत आ. वश्यक सूत्र, प्रभाविक चरित्र, परिशिष्ट पर्वन् , कल्पसूत्रादि ग्रंथोमें है. अ-श्रीवज्रस्वामीका शिष्य स्थविर वज्रसेन सूरि , इ. नोंसे नागली शाखा निकली. (१) दूसरा शिष्य आर्यपद्म स्थविर, इनोंसे आर्यपद्म शाखा निकली. (२) स्थविर आर्यस्थ, तिनसें आर्यज्यंत शाखा निकली. श्री आर्यस्थ, १, तिसका शिष्य आर्यसगिरि, २, तत्पट्टे आर्य फल्युमित्र, ३, आर्य धनगिरि, ४, आर्य शिवभूति, ५, आर्य भद्र, ६, आर्य नक्षत्र,
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31%)
VAM
IFA
ANS
( ५२ ) ७, आर्य रक्ष, ८, आर्य नाग, ९, आर्य जेहिल, १० आर्य विष्णु, ११, स्थविर आर्य कालका, १२७ स्थविर आर्य संपलीय, तथा आर्य भद्र, १३, आर्य वृद्ध, १४ आर्य संघपालित, १५, आर्य हस्ति, १६ आर्य धर्म, १७, आर्य सिंह, १८, आर्य धर्म, १९, आर्य सिंह २०, आर्य जंबू, २१ आर्य नंदिक, २२, आर्य देसी गणि, २३, आर्य स्थिरगुप्तक्षमाश्रमण, २४, स्थविर कुमारधर्म, २५, स्थविर देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण, २६४ यह पट्टावली वल्लभी वाचनाके कल्पसूत्रानुसारहै. श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणने श्रीवीरात्,, ९८०, वर्ष, पीछे एक कोटि पुस्तक ताडपत्र ऊपर लिखें. यहांसे पुस्तकारुढ हुये. यह कथन श्री आवश्यक सूत्र, क ल्पसूत्र, प्रभाविक चरित्र, आत्मप्रबोधादि ग्रंथो में हैं.. ब-माधुरी वाचना होनेसें श्री नंदीसूत्रमें इस तरेसें,
श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणवाली पट्टावली लिखिहै। सोइ लिख दिखाते है. श्री सुधर्मस्वामी. (१) श्री जंबूस्वामी. [२] श्री प्रा. भवस्वामी. [३] श्री सय्यंभवस्वामी. [४] श्री यशोभद्रस्वामी. [५] श्री संभूतिविजय, तथा भद्रवाहुस्वामी. [६] श्री स्थूलभद्रस्वामी. [७] श्री आर्य म:
.
INE
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( ५३ )
हागिरि, तथा आर्य सुहस्ति सूरि. [C] श्री बहुल, और बलिरसह. (९) श्री स्वाति सूरि. (१०) श्री श्यामाचार्य. [११] श्री शांडिलाचार्य. (१२) श्री जीतधर. (१३) श्री आर्य समुद्र. (१४) श्री आर्य मंगु. (१५) श्री आर्य नंदीलक्षण. (१६) श्री आर्य नागहस्ति. (१७) श्री रेवती नक्षत्र. (१८) श्री सिंहाचार्य. [१९] श्री स्कंदिलाचार्य. (२०) श्री हेमवत्. (२१) श्री नागार्जुन. (२२) श्री गोविंदवाचक. (२३) श्री भूतदिन. (२४) श्री लोहिताचार्य. (२५) श्री दूष्यगणि. (२६) श्री देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण. (२७)
(२०) वीशमें पाट ऊपर जो श्री स्कंदिलाचार्य लिहै, सो किसी किसी पट्टावलीमें चौवीशमें पाट उपर लिखे है. सबबकि, उस पट्टावली लिखने वालेने, श्री महावीर स्वामीसें पट्टावली लिखनी शुरु करी है, और श्री भद्रबाहु स्वामी. १, श्री आर्य सुहस्तिसूरि, २, और श्री बलिस्सहसूरि, ३, इन तीनो - आचार्य को अलग अलग पाट ऊपर लिखे है.
(२३) तेवीसमें पाट ऊपर जो श्री गोविंदवाचक लिखें है, सो किसी किसी स्थानमें नहीभी लिखे है.
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- (३८)
ॐ
८e:
(१५) श्री वज्रसेनसूरि श्री वीरात्, ३२०४वर्षस्व । गे. इनके समय तीसरा बारां वर्षी काल पडा, जोकि । श्री वज्रस्वामीके अंत समयमें विद्यमान था. एका अ-श्री वीरात्, ५४८, वर्षे श्री गुप्ताचार्य त्रैराशिकके। जीतनेवाले. श्री वीरात्, ५५३, भद्रगुप्ताचार्य. श्री वीरात्, ५२५, श्री शत्रुज्य तीर्थोच्छेद. श्री वीरात्, ५७०, जावडशाहने शत्रुज्य तीर्थका उ. द्धार कराया. श्री वीरात्, ५९७, श्री आर्य रक्षितसूरि.... श्री वीरात्, ६१६, छसों सोलां दुर्बलिका पुष्पाचार्य." श्री वीरात, ५९५, वर्षे कोरंटन नगरमें तथा सत्यपुं- । रमें नाहडमंत्रीके बनाये ज़िनमंदिरमें, श्री जझक' सूरिने,श्रीमहावीर स्वामिकी प्रतिमाकी प्रतिष्टा करी..
यह कथन पट्रावली आदि ग्रंथोमें है. ब-श्री वज्रसेन सूरिके चार शिष्य हुए. (१) श्री चंद्र
सूरि, तिनसें चांद्रकुल निकला. (२) श्री नागेंद्रसूरि, तिनसें नागेंद्रकुल निकला: (३) श्री निवृतसूरिति । नसें निवृतकुल निकला.इस निवृत कुलमें विक्रमात ।
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(५५) __७७२, वर्षे श्री आचारांग, सूत्रकृतांग सूत्रोंकी वृत्ति
कर्ता, श्री शीलांकाचार्य. तथा विक्रमात्, ११२०, वर्षे ओघनियुक्ति वृत्तिकर्ता, श्री द्रोणाचार्य, [४] विद्याधरसूरि, तिनमें विद्याधर कुल निकला. इस कुलमें विक्रमात् ५८५, वर्षे श्री हरिभद्रसूरि, १४४४ ग्रंथकर्ता. यह कथन कल्पसूत्र पदावली आदि ग्रंथोमें है.
(१६) श्री चंद्रसूरि. इनोंसें निग्रंथ गच्छका तीसरा नाम चंद्रगच्छ पडा. पट्टावल्यादौ. अ-श्री वीरात् , ६०९, वर्षे कृष्णमूरिके शिष्य, शिवभूति सहलमल्लने दिगंबर मत निकाला. इसका विशेष वर्णन श्री विशेषावश्यक सूत्रादि ग्रंथोमें है. तिस शिवभूति सहस्रमल्लके दो शिष्य हूये. कोडिन १, और, कोष्टवीर. २: पीछे धरसेन, १, भूतिबली, २, पुष्पदंत ३ हूए. श्री वीरात्, ६८३, वर्ष पीछे भूतिवली और पुष्पदंतने ज्येष्टसुदि ५, के दिन शास्त्र बनाने प्रारंभ करे. ७००००, श्लोक प्रमाण धवल, ६००००, श्लोक प्रमाण जयंधवल, और, ४००००. श्लोक प्रमाण महाधवल. यह तीनों ग्रंथ अबभी क
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( ५६. र्णाटक देशमें विद्यमान है: असा सुगते है. तिन य थोमेंसें नेमिचंद्रने चामुड राजाके पढने वास्ते गों मटसार रचा. धवल जयधवल, महाधवल, इन तीनों से पहिला शास्त्र दिगंबरीने करा नहीं है. पीछे दि गंबरोमें चार शाखा हुइ. नंदी, १, सेन, २, देवा, ३,
और सिंह. ४. पीछे चार संघ हूये. काष्टासंघ, १, मः लसंघ, २, माथुरसंघ, ३, और गोप्यसंघ. ४. पीछे वीशपंथी, तेरापंथी, गुमानपंथी, तोतापंथी आदि फांटे हुये. तोतापंथी मंदिरमें प्रतिमाके ठिकाने पुस्तक पूजते है. प्रथमतो शिवभूतिने नग्नपंथ काढा फेर स्त्रीकों मोक्ष नही, केवलीकों कवल आहार नहीं इत्यादि करतें करतें [८४] बातोंका फेर कहने लग. गये. इनका खंडन बहोत विस्तार सहित स्यादाद रत्नाकरावतारिका, वादीवेताल शांतिसूरिकृत उत्तराध्ययन बृहद्वृत्ति आदि ग्रंथोमें है.
अब आज कालतो तेरापंथीओंने बहु तही का पोल कल्पना खडी करी है, जोकि दिगंबर मतक। प्राचीन, और नवीन ग्रंथोंके मिलानसें मल्लम होता है। ___ * संक्षेपमावतो खंडन श्री छत्व निर्णय प्रसादमें ग्रंथकर्ता
ने लिखा है...
...
... . ' ...
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२७) श्री सामंतभद्रसूरि . यह आचार्य प्रायः वनमें-- ही रहतेथे, जीससें लोकोंने वनवासी गच्छ . : नाम रख दीया. तबसें निग्रंथ गच्छका चौथा - नाम वनवासी गच्छ हुआ..
.. .. (४१) . . . . २१८) श्री वृद्धदेवसूरि. श्री वीरात्, ६९६, वर्षे. '
(४२) (१९) श्री प्रद्योतनसूरि.. (२०) श्री मानदेवसूरि लघुशांति कर्ता इन आचा.
योने तक्षशिला नगरीके संघको मरीशांत होने
वास्ते नडोल नगरसें लघुशांति स्त्रोत्र रच ... कर भेजा. ... . (२१) श्री मानतुंगसूरि. भक्तामरादि स्तवकर्ता तथा - वृद्ध भोजादि राजा प्रतिबोधक. ,
-
1
(२२) श्री वीराचार्य. इनोंने श्री वीरात्, ७७०,वर्षे ना
गपुरमें श्री नमिनाथकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठाकरी...
... (२३) श्री जयदेवसूरि. श्री वीरात्, ८२६, वर्षे. ..
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( ५८ ).
(४७)
(२४) श्री देवानंदसूरि. श्री वीरात्, ८४५, विक्रमात, ३७५, वर्षपीछे वल्लभी नगरीकाभंग. किसीस्थानमें विक्रमात् ४४० वर्षे वल्लभीभंग लिखा है. अ - वल्लभीके भंगमें श्री गंधर्व वादिवेताल शांतिसूरिने संघकी रक्षा करी.
"
(४८)
(२५) श्री विक्रमसूरि, श्री वीरात्, ८८२.
(४९)
(२६) श्री नरसिंह सूरि.
(५०)
(२७) श्री समुद्रसूरि.
अ - श्री वीरात्, ९९३, वर्षपीछे श्री कालिकाचार्यने पंचमीसें चौथकी संवत्सरीकरी. यहकथन, श्री निशी - थचूर्णि, व्यवहारसूत्र, मूलश्रुद्धि प्रकरणादि ग्रंथों में है. व - श्री वीरात, १०००, वर्षे सत्यमित्राचार्य के साथ सर्व
पूर्वव्यवच्छेद हुए.
( ५१ )
(२८) श्री सानदेवसरि
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मीश्रणः ध्यानशतंकका कर्त्ता.
(५२)
(२९) श्री विबुधप्रभसूर.
(५३)
(३०) श्री जयानंदसूरि.
(५४)
(३१) श्री रविप्रभसूरि. इनोंने श्री वीरात्, ११७०, वर्षे नडोलनगर में श्री नेमिनाथकी प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करी.
अ - श्री वीरात्, ११९०, उमाखाति युगप्रधान
(५५)
(३२) श्री यशोदेवसूरि. किसी पट्टावली में श्री यशोदेवसूरिके पाट उपर श्री प्रद्युम्नसूरि, और प्रघुम्न सूरिके पाटउपर श्री मानदेवसूरि उपधानवाच्य ग्रंथ कर्त्ता लिखे है, परंतुयहां उनोंकी अपेक्षा रहित लिखने में आया है.
अ - श्री वीरात्, १२७०, विक्रमात् ८०० वर्षे भाद्रशुदि तीजके दिन बप्पभट्ट आचार्यका जन्म हुआ. जिसने गवाली रके आम राजाकों जैनी बनाया. विक्रमात, ८९५ वर्षे स्वर्ग. इन श्री बप्पभट्टाचार्यका वृत्तांत
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(६०)
प्रभाविक चरित्र, प्रबंध चिंतामणि आदि ग्रथोंमें है. -श्री वीरात, १२७२, विकमात्, ८०२, वर्षे वनराज राजाने अणहिल्लपुर पाटण वसाया.
(३३) श्री विमलचंद्रसूरि.
(५७) (३४) श्री उद्योतनसूरि.
(३५) श्री सर्वदेवसूरि.इनोंकों श्रीवीरात्,१४६४, वर्षे वटवृक्ष हेठे सूरिपद देनेसें निग्रंथगच्छका पांचमा नाम वडगच्छ पडा. इनोंने विक्रमात्, १०१०, वर्षे राम सैन्यपुरमें श्री ऋषभदेव चैत्य तथा श्री चंद्रप्रभ चैत्यकी प्रतिष्ठा करी. तथा चंद्रावतीमें कुंकण मंत्रीकों प्रतिबोधके दीक्षा दीनी. अ-विक्रमात्, १०२६, तक्षशिलाकानाम गजनी हुआ. विक्रमात्, १०२९, धनपाल पंडितने देशी नाम
माला बनाइ. ब-विक्रमात्, १०९६, थिरापद्रीय गच्छमें उतराध्ययन
सूत्र बृहवृत्ति कर्ता श्री वादी वेताल शांति सूरिका स्वर्ग
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. (६१ )
.. (५२) . - (३६) श्री देवसूरि. ..
- (६०) (३७) श्री सर्वदेवसूरि.
(६१) -- (३८) श्री यशोभद्रसूरि, तथा श्री नेमिचंद्रसूरि, दोनों गुरूभाइ, और दोनोंही श्री सर्वदेवसूरिके
पाट उपर हो, जिसमें श्री नेमिचंद्रसूरिकी शाखा - अलग हुई.
अ-श्री नेमिचंद्रसूरि. (१) श्री उद्योतनसूरि. (२) श्री - वर्द्धमानसूरि. (३) श्री जिनेश्वरसूरि तथा श्री बुद्धि _ सागरसूरि. (४) इनोंनें अष्टकवृत्ति, पंचलिंगी प्रकरण, - और बुद्धिसागर व्याकरणादि ग्रंथ बनाये है.
. श्रीजिनचंद्रसूरि, संवेग रंगशाला ग्रंथकर्ता.(५) - श्री अभयदेवसूरि, नवांगीवृत्ति, तथा श्री स्थंभन
पार्श्वनाथ प्रतिमा प्रगट कर्ता. विक्रमात्, ११३५. म- तांतरसे ११३९, में स्वर्ग. (६) श्री जिनवल्लंभसूरि.
पिंडविशुद्धि,भवारिवारण, वीरचरित्र, षडासीप्रकरण, -... संगपट्टक आदि ग्रंथकर्ता. (७) श्री जिनदत्तसूरि. -संदेह दोलावली. और सार्द्ध शतक वृत्ति कर्ता (८)
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( ६२ )
श्री जिनचंद्रसूरि. (९) श्री जिनपतिमूरि. (१०) श्री जिनेश्वरसूरि . ( ११ ) श्री जिनप्रबोधसूरि. (१२) श्री जिनचंद्रसूरि. ( १३ ) श्री जिनकुशलसूरि. (१४) श्री जिनप्रभसूरि. (१५) श्री जिनलब्धिसूरि. (१६) श्री जिनचंद्रसूरि. (१७) श्री जिनोदयसूरि. (१८). श्री जिनराजसूरि. (१९) श्री जिनभद्रसूरि. (२०) श्री जिनचंद्रसूरि. (२१) श्री जिनसमुद्रसूरि. (२२) श्री जिनहंस सूरि. (२३) श्री जिनमाणिक्य सूरि. (२४) श्री जिनचंद्रसूरि. (२५) श्री जिनसिंह सूरि. (२६). श्री जिनराजसूरि. (२७) श्री जिनरत्न सूरि. ( २८ ) श्री जिनचंद्रसूरि. (२९) श्री जिन सौख्यसूरि. (३०). श्री जिनभक्तिसूरि. (३२) श्री जिनलाभसार. (३३) श्री जिनहर्पसूरि. (३४)
(६२)
( ३९ ) श्री मुनिचंद्रसूरि इनोंने धर्म बिंदु, योग बिंदु, उपदेशपद आदि ग्रंथोकी टीका करी तथा अपने गुरुभाइ चंद्रपभकों समजाने के वास्ते पाक्षिक सप्ततिका करी.
अ - संवत्, ११५९, में श्री मुनिचंद्रसूरिके वडे गुरुभाइचंद्रभने पौर्णिमीयक मत निकला. अर्थात् पाक्षिक
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( ६३ ) पूर्णमासीके रोज करनी. इस कालमां यह मतप्रायः लुप्त हो गया है, नाम मात्र रहा है. पौर्णिमीय मतसें निकलेके नरसिंह उपाध्यायनें संवत, १२१३, मतांतरसें १२१४, तथा १२३३, में अंचलमत निकाला. . ..
[ ३] [१०] श्री अजितदेवसूरि. दिगंबरजेता. इनोंने संवत्, १२०४, में फलवधि ग्राममें चैत्यबिंबकी प्रति
ठा करी; सो तीर्थ अद्यापि पर्यंत विद्यमान है. तथा 7 आरासणमें श्री नेमिनाथकी प्रतिष्ठा करी. तथा -८४०००, चौराशीहजार श्लोक प्रमाण स्यादाद र
नाकरनामा ग्रंथ बनाया. इनोंका, १२२०, में स्वर्ग..वास हूआ.
अ-श्री अजितदेवसूरिके समयमें श्री देवचंद्रसूरिके - शिष्य, साढेतीनकोड ३५००००००, श्लोकोंके कर्ता, - कलिकालमें सर्वज्ञविरुद धारक, पाटणके राजा कु- मारपाल प्रतिबोधक, श्री हेमचंद्रसूरि हुआ. इनोंका
जन्म विक्रम संवत्, ११४५, दीक्षा संवत्, ११५०,
सूरिपद, ११६६, और, १२२९, में स्वर्ग. इनोंका वृ- त्तांत प्रबंधचिंतामणि, कुमारपाल चरित्रादि ग्रंथोमें है. ब-विक्रम संवत् ; १२०४, में खरतरगच्छ नाम पडा.
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MAA -
(४१) श्री विजयसिंहमूरिमा
___ (४२) श्री सोमप्रभसूरि...
-विक्रमात्, १२३६, साढ पूनमीया मत निकला ___ श्री वीरात् , १६९२, वर्षे वाग्भट्ट मंत्रीने साढेती ___ कोड रूपक खरचके श्री शत्रुजय तीर्थका, १४, ची
हमा उद्धार कराया. . . . व-विक्रमात् , १२५०, आगमीयामत निकला.
(४३) श्री मुनिरनसूरि.* .........
(६७) [१४] श्री जगच्चंद्रसूरि. विक्रम संवत्, १२८३ में इनआचार्यका बड़ा भारी तप देखके चितोडके राणेने “तपागच्छ” नाम दीया. यह निग्रंथ गच्छक
का नाम हुआ.
६८]
[१५] श्री देवेंद्रसूरि विक्रमात्, १३२७ स्वगः * किसी किसी पट्टावलिमें 'मुनिरत्नसूर के ठिकाने 'मणिरत्नम् नाम लिखाहै, तथा श्री सोमप्रभमूरि और श्री मणिरत्नसार । श्री विजयसिंहमूरिके पाट ऊपर होनेसे एकही नंबर में लिखे हैं।
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... . (७०).:. :: (४७) श्री सोमप्रभसूरि विक्रमात,१३७३, स्वर्ग.
(४८) श्री सोमतिलकसूरि. विक्रमात्,१४२४, स्वर्ग.
Ayr.
: (४९), श्री देवसुंदरसूरि विक्रमात, १४५६, स्वर्ग:
, (७३) . (५०), श्री सोमसुंदरसूरि विक्रमात,१४९९,स्वर्ग:
(७४) (१) श्री मुनिसुंदरसूरि विक्रमात् १५०३,स्वर्ग.
१० (५२) श्रीरत्नशेखरसूरि विक्रमात,१५१७ वर्षे स्वर्ग.
ईनोंने श्राधा प्रतिक्रमण वृत्ति, श्राध्ध.
विधि सूत्रहीत्त लघुक्षेत्र समास, और :: आचार 'प्रदीपादि ग्रंथ रचेहै. अ-श्री रत्नशेखर सूरिक समयमें संवत् , १५०८,
में जिनप्रतिमा, और पंचांगी उथ्थापक लु
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SEATS:
कानामा लिखारीने लंपक (लाकाः) म जैनशास्रोंसें विरूद्ध स्वकपोलकल्पित निका ला, परंतु संवत् १५३३-३४, तक इसका उ.. पदेश किसीने माना नही. पीछे, १५३३-३४, , मेही एक भूणा नामा वाणियालंकेको मिला, तिसने लुकेका उपदेश माना.लंकेके कहनेसे तिस भूणेने विनाही गुरुके दीये अपने आप वेष पहना,और मूढ लोगोको जैनमार्गसें भ्रट करना शुरु कीया. लोंकेने अपने मतानु कूल,३१, इकतीस शास्र सच्चे माने. और इ. कतीसमें भीजहाजहां जिनप्रतिमाका अधिः । कार आतारहा, तहांतहां अपनी कल्पनासें' मन घडित खोटा अर्थ करने लगा.इस लंपक . मतमेंसें संवत्, १५७०,में वीजा नामा वेषधरने वीजा नामा मत निकाला. और संवत्, १५७२, में रूपचंद सराणेने स्वयमेवभेष पेह
नके नागोरी लंपकमत निकाला. इसने प्रति .५ माका उध्यापन नहीं करा.
लंकेका निकाला हुआ जो मत है, उसकों
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(६७) जराती लौंका कहतेहै. तिनमेंसेंभी उतराधी विगेरे लैांके फिर प्रतिमाकों मानने लगगये,
और जिनका मुहबंधे हुंढकोंके साथ मेल रहा, उनाने प्रतिमाका मानना नहीं
कार करा. व-लंपक मतमेंसें संवत, १७०९, में सुरतके वासी
वोहरा वीरजीकी बेटी छलांबाईकी गोदी
लीये बेटे लवजी नामकने, लंपक मतकाजो . उसका गुरुथा, उसमें कई बातें करके, अ
पने आप निकलके, साथ औरांनुं लेके, मु.
हुपरकपडा बांधके, अलगमत निकाला जि... स मतकों लोग “ ढुंढीये" कहतेहै. ईन ई.
ढीयोंका मत जबसें निकलाहै, तबसें आज पर्यंत इनके मतमें कोई भी विवान न. ही हुआहै. कयोंकी, यहलोक कहते है, कि व्याकरण, कोश, काव्य, छंदः, अलंकार, साहित्य, तर्कशासादि पढनेसें बुधि मारी
जातीहै. असलीमें इनोंका व्याकरणा . शास्त्र नही पढनेका यह तात्पर्य है, कि
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(६८) व्याकरणादिके सबबसे यथार्थ शास्त्रोंका अर्थ . मालुम होताहै. जब यथार्थ मालुम होया, कि तत्काल उनोंका मत जूठा सिध्ध होजानाहै. इसवास्ते पढना ही बंद करदीया है, कि जिससें अपने माने स्वकपोल कल्पित मत
को हानी नहोवे तथा यहलोक, ३१, इकतीश शास्त्रेतो लंपकवा लेही मानते है, परंतु व्यवहारशास्त्र वत्तीसमा ज्यादा मानने लगे, तथा आवश्यक सूत्रज़ो असलीथा, सो लौंकेने प्रतिमा के सबसे मानना छोडदीया, और स्वकपोल कल्पित नवा खडा करलीया. इन ढुंढकोंने दोनोंही छोडके, अपने मनमाने अडंगे मारके नवाही खडाकर लीया. येह ढुंढीयेभी प्रतिमा, और प्रतिमाका पूजना ( मूर्ति पूजन) नही मानते
इनोंका मत जैन शास्त्रोंसें विपरति है. लोकोंमें यह लोक जैनी कहाते है। परंतु वास्तवीको जैनी नहीं है. इन ढुंढीयांके, २२, वाईस फांटे निकले है, जो कि बाइस टोलेके नामसें प्रसिध्ध है, सो वाइस टोलें नीचे लिखे जाते है........
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(६९) धर्मदासका टोला (१) धनाजीका टोला (२) इस धनाजीका चेला भूदर, तिसका चेला रघुनाथ, तिसका चेला भीखम, तिस भीखमने संवत्, १८१८, में तेरा पंथी मुहबंधोका पंथ चलाया तीसरा लालचंद का टोला (३) रामचंदका टोला (४) मनोका टोला (५) वडापृथुराजका टोला (६) बालचंदका टोला (७) लघुपृथुराजका टोला (८) मूलचंदका टोला (९) ताराचंदका टोला (१०) प्रेमजीका टोला (११) पदार्थजीका टोला (१२) खेतशीका टोला (१३) लोकम नका टोला (१४) भवानीदासका टोला (१५) मलू कचंदका टोला (१६) पुरुषोत्तमका टोला (१७) मुकु टरायका टोला (१८) मनोहरजीका टोला (१९) गुरू साहेका टोला (२०) समर्थजीका टोला, (२१) और वाघजीका टोला (२२) .. ... (५३) श्री लक्ष्मीसागर सूरि
(५४) श्री सुमतिसाधु सूरिsifires (१५) श्री हमेविमल सूरि. इनोसे विमल शाखा
प.
(७७)
.
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(G.
चली, इनोंके समय, १५६२, में का
णियेने कडुयामत निकाला. (५६) श्री आनंद विमल सूरि. विक्रमात १५९६.
स्वर्ग, इनोंकेसमय, १५७२, में नागपुरीय तपा गच्छसे अलग होकर पासचंदने पासचंद मत निकाला...
-27
-
.
-
म
(५७) श्री विजयदान सीर. विक्रमात, १६२
, वर्षे स्वर्ग.
(५८) श्री जगद्गुरु श्री हीरविजय सूरि वि० . १६५२, स्वर्ग. इनोकावर्णन हीरसौभाग्य काव्यमें है.
(८२. (५९) श्रीविजयसेनपुरि विक्रमात्,१६७१,स्वर्ग
r
६० श्री विजयदेव सूरि विक्रमात, १६८१; श्री दि १ . जयसिंह सरि, विक्रमातं, १७०८. इनोंसें दि
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(७१) जय गच्छ प्रसिद्ध हुआ.* तथा श्री विजय आणंद सूरि. इनोंसें आणंद सूर गच्छ निकला. श्री विजयदेवसूरि, तथा विजय आणंदसूरी, दोनों गुरु भाईथे, और एकही पाट पर हूयेहै. अ-श्री विजय देव सरिके समय विमल गच्छमें ज्ञानविमलसूरिहूए. तथा इनोंहीके समय शांतिदास शेठकी मददसें सागर गच्छ निकला. ब-श्री विजयसिंह सूरिके शिष्य सत्यविजयगणि
तथा श्री मद्यशोबिजयोपाध्याय, इन दोनोंने श्री विजयसिंहसूारिकी आज्ञासे क्रिया उधार करा. तथा शिथिला चारी साधुओंसें, और ढुंढक मती पाखंडीयोंसें जूदे मालुम होनेके वास्ते, पीतवस्त्र धारणकरा, सो संप्रदाय अवतक चला आता है. और गुजरात विगेरे देशोंमें प्रायःसर्व जगे प्रसिध्धहै.
श्री विजयसिंह सूरिसें लेके इस वृक्षके कर्ता 'जिसमें इस इतिहास रूप वृक्षके लिखने वालेहुयेहै.
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( ७२ ) , तककी पट्टावली नीचे लिखते है.... .
-, (१) श्री विजयसिंह सूरि, (२) श्री सत्यविजय गणि, तथा श्रीयशोविजयोपाध्याय. (३) श्री सत्यविजय गणिका शिष्य श्री कर्पर विजय गणि. (४) श्री क्षमाविजय गणि. (५) श्री जिनविजय गणि. [६] श्री. उत्तम विजय गणिः (७) श्री पन विजय गणि. (८): श्री रूपः विजय गणि. (९) श्री कीर्ति विजय गणि. (१०) श्री कस्तूर विजय गणि. (११) श्री मणि विजय गणि. (१२) श्री बुद्धि विजयजी महाराज. इनोंके लघुशिष्य श्री आत्मा रामजीने यह जैन मत वृक्ष बनाया.
श्री आत्मारामजीने संवत्, १९१०, में मृगसीर शुदि, ५, के रोज़ ढुंढक मतकी दीक्षा लीनी. संवत्, १९३२, में श्री अहमदावाद जाके श्री बुद्धि विजयजी महाराजजीके पास सनातन जैनधर्म, जो कि श्री महावीर स्वामीसें लेके आज पर्यंत अविच्छिन्नपणे चलता है, सो अंगीकार करा. और मनः कल्पित असत्य ढुंदक मतका त्यागन, करा. साथमें कितनेही साधुओंकों, तथा हजारों श्रावक
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(७३ ) श्राविकाओं कोभी, जैनाभास ढुंढक मत त्यागन करवाया, और सत्य धर्म अंगीकार करवाया. संवत्, १९४३, में कार्तिक वदि पंचमी (पंजावी मृगसीर वदि पंचमी) के रोज, श्री शत्रुजय तीर्थो परि, च तुर्विध संघने “ सूरिपद"दीना, जिसमें "श्री मदि ज्यानंद सूरि," ऐसा नाम स्थापन करा. ..
(६१) श्री विजयदेवसूरि, तथा श्री विजयसिंह
सूरि के पाट ऊपर श्री विजय प्रभसूरि. वि०, १७४९.
(६२) श्री विजयरत्न संरि
(६) .
.. . . .
. . .
- (६३) श्री विजय क्षमा सूरि. यहां से बहोतही
शिथिलाचार प्रचलित हुआ.
(६४) श्री विजय दया सूरि.
(e) (६५) श्री विजय धर्म सूरि.
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(७४)
. (८९) (६६) श्री विजय जिनेंद्र सूरि.
-
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(६७) श्री विजय देवेंद्र सूरि. (६८) श्री विजय धरेणेंद्र सूरि. (६९) श्री विजयराज सूरि.
क ॥गुर्जरदेश भूपावलिः ॥ श्री मन्महावीर स्वामीके पीछे गुजरात देशमें जिनजिन राजाओंका राज्य हुआ, तिनके नाम. जिस रात्रिमें श्री महावीर स्वामी मोक्ष गये, तिस रात्रिमें उज्जैनका पालक नामा जैनी राजा हुआ, तिसका राज्य, ६०, वर्ष. नवनंद जैनीराजे, तिनोंका राज्य, १५५, वर्ष. चंद्रगुप्तसें लेकर मौर्य वंशके जैनराजाओंका राज्य, १०८, वर्प. पुष्पमित्र जैनी राजा, ३०, वर्प.
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७५ )
7 बलमित्र, भानुमित्र जैन राजाओं का, ६०, वर्ष. नरवाहन राजा, ४०, वर्ष.. गर्द भिल्ल राजा, १३ वर्ष. शक राज्य, ४, वर्ष.
श्रीवीरात्, ४७०, वर्षे विक्रम जैनी राजा, ८६, वर्ष. विक्रमका पुत्र जैनी राजा, ४९, वर्ष. शालिवाहन जैनी राजा, ५०, वर्ष. बलमित्र जैनी राजा, १००, वर्ष. विक्रमात्, २८५, हरि मित्र, १००, वर्ष. वि०, ३८५, प्रियंमित्र, ८०, वर्ष. वि०, ४६५, भानुराजा, ९२ वर्ष. आम और भोजादि सात राजे हूये, तिनोंका राज्य, २४५, वर्ष. आम राजा जैनी.
वि०, ८०२, वनराज जैनी राजा, जिसने पाटण नगर में पंचासरा पार्श्वनाथजीका मंदिर बनवाया. इसका राज्य, ६०, वर्ष. वनराजसे लेके सामंतसिंह तक सात राजे चापोत्कट ( चावडा) वंशमें हुए है. वनराज को छोड के और छ, ६, राजे जैन मत पक्षी. satar सर्व राज्य, १९६ वर्ष...
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( ७६ ) विक्रमात, ८६२, योगराज, ३५, वर्ष. वि०, ८९७, क्षेमराज, २५, वर्ष. वि०, ९२२, भूवडराजा, २९, वर्ष. वि०, ९५१, वयरसिंह, २५, वर्षः वि०, ९७६, रत्नादित्य, १५, वर्ष. वि०, ९९१, सामंतसिंह, ७, वर्ष. . वि०, ९९८, मूलराज, ५५, वर्ष. वि०, १०५३, चामुड, १३, वर्ष. वि०, १०६६, वल्लभराज, ६, महिने. वि०, १०६६, दुर्लभराज, ११ वर्ष, ६, महिने. वि०, १०७८, भीमराजा, ४२, वर्ष. वि०, ११२०, करणराजा, ३०, वर्ष. वि०, ११५०, सिद्धराजा जैनमिश्रित, ४९, वर्ष. वि०, ११९९, कुमारपाल जैनीराजा, ३१, वर्ष. . वि०, १२३०, अजयपाल, ३, वर्ष.. वि०, १२३३, मूलराज, ६३ त्रेशठ वर्ष. वि०, १२९६, २, वर्ष.
मूलराजसें लेके यह, ११, ग्यारां राजे चौलुक्य वंशीहै. इनोंका सर्व राज्य, ३००, वर्ष.
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( ७७) विक्रमात्, १२९८, वीरधवलराजा, १०, वर्ष.
वि०, १३०८, विशलदेव, १८, वर्ष. - वि०, १३२६, अर्जुनदेव, १४, वर्ष. .
वि०, १३४१, सारंगदेव, २१, वर्ष. .. - वि०, १३६१, करणदेव, ७, वर्ष.
वि०, १३६८, खिदरशाह खीलची,३३, वर्ष, ९, मास. वि०, १४०१, मुबारकशाह, १५, वर्ष. वि०, १४१६, हिसाबुदीन खिराम, ५, वर्ष. वि०, १४२१, निर्मलशाह, १, वर्ष, ७, महिने. वि०, १४२३, तहमुल, ३, वर्ष..
. वि०, १४२६, महम्मदशाह, ७ वर्ष, ३ मास. ; वि०, १४३३, वाहाबंदीन, १३, वर्षः वि०, १४४६, अल्लाउदीन, ३, वर्ष.. वि०, १४४९, सरकीफीसान, १३, वर्ष. वि०, १४६२, बहलोललोदी, ४२, वर्ष. वि० १५०४, ४, वर्ष.. .. वि०, १५०८, शिकंदरलोदी, ३०, वर्ष, ९ मास. . वि०, १५३९, इब्राहीम, ८, वर्ष, ७ मास.. वि०, १५४७, बाबरशाह, ७, वर्ष ७, मास.
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(.७८ ) वि०, १५५५, हुमाउ, १०, वर्ष.. वि०, १५६५, शेरशाह, ५, वर्ष, ३, मास. वि०, १५७०, सलेमशाह, ८, वर्ष, ९, मास.' वि०, १५७९, फीरोजशाह, ७, वर्ष, १, मास. वि०, १५८६, महम्मदअली, २, वर्ष., वि०, १५८८, अविरहाम, १, वर्ष, ९, महिने. वि०, १५९०, सिकंदर, ७, वर्ष, ७, मास. . वि०, १५९७, हिमाउ, ७, वर्ष, ७, मास. ., वि०, १६०५, अकबर, ५१, वर्ष, ७, मास.. वि०, १६५७, जहांगीर, २२, वर्ष, ७ मास.. वि०, १६७९, शाहजाह, ३३. वर्ष, वि०, १७१२, औरंगजेब, ५२, वर्ष, वि०१७६४, वहादरशाह, १, वर्ष, वि०, १७६५, सें दो वर्ष, विना स्वामीके राज्य रहा वि०, १७६७, फरुखशेर, ५, वर्ष. ... ... वि०, १७७२, महम्मदशाह, ३२, वर्ष, वि०, १८०४, अहम्मदशाह, . आलमगिर, और अलिघोर. इति.
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__. “जैन मतमें जोत्रिषठि, ६३, शिलाका पुरुष कहे जातेहै, तिनोंका यंत्र." ... . "यहहरेक उत्सर्पिणी अवसर्पिणी में होतेहै, परंनामादि भिन्न होतेहैं." २ श्रीऋषभदेव मार श्री अजितनाथ र श्री संभवनाथ ४ श्री अभिनंदन श्री सुमतिनाथ६ श्री पद्मप्रभ अ
थम अरिहंत. | अरिहंत.. | अरिहंतः . अरिहंत. | अरिहंत. | रिहंत. २ प्रथम भरत च/२ सगरचक्रवत्ती. ...
क्रवती.
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७ श्री सुपार्श्वनायट श्री चंद्रप्रभ आर श्री सुविधि ना१० श्री शीतलना११. श्री श्रेयांसार२ श्रीवासुपूज्य अरिहंत.
रिहंत. . | थ अरिहंत. | थ अरिहत. | नाथ अरिहंत. अरिहंत...]
०
१ अश्वग्रीव प्रतिर तारक प्रति वा
वासुदेव. | सुदेव. त्रिपवासदेव.२ दिपवासदव. ११ अचल बलदेव.२ विजय बलदेव
श्रीशांतिनाथ
१३ श्री विमलना,१४ श्री. अनंतना १५ श्रीधर्मनाथ
थ अरिहंत. . य अरिहंत. | अरिहंत.
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अरिहंत. "
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४ मधुकैटग मदि निशुंभ प्रात वासुदेव. वामुदेव. स्वयंभुवासुदेव ४ पुरुषोत्तम वासुंद पुरुपसिंह वा ३ भद्रवलदेव.
दव.
३ मेरक गति वासुदेव.
सुदेन. ४ सुप्रभवलदेव. ५ सुदर्शन वलदेव..
अरिहंत.
१७ श्री कुंथुनाथ १८ श्री अरनाथ अरिहंत.
६ श्री कुंथुनाथ ७ श्री अरनाथ चक्रवर्ती.
चक्रवर्ती.
२० श्री मुनि मु व्रत अरिहंत. महापद्म चक्र
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मघवाचक्रवर्ती ४ सनत कुमार चंद्र श्री शांतिनाथ
क्रवर्ती.
चक्रवर्त्ती.
१८ सुभूम चक्रवर्ती
दिवलिमतिवासुदेव ६ पुरुष पुंडरिक! वासुदेव. ६ आनंदवलदेव.. २१ श्री नमिनाथ) अरिहंत.
२० हरिषेण चक्र ११ जय चक्रवर्ती
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पछाद प्रति वा सुदव. ७ दत्त वासुदेव. नंद बलदेव.
२२ श्री अरिष्टने मि अरिहंत.
१९ श्री मल्लिनाथा अरिहंत.
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१२ ब्रह्मदत्त च
: (४०)
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१८.रावण भाति वा . . . .
-९ जरासंध प्रति सुदेव.
- वासुदेव. ८ लक्ष्मणवासुदेव
...९ कृष्ण वासुदेव. ८ रामचंद्रबलदेव./
९ बलभद्रवलदेव.] २३ श्री पार्श्वनाथ/२४ श्री महावीर ''अरिहंत.' | स्वामी अरिहंत,
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इति न्यायाम्भो निधि तपगच्छाचार्य श्रीमधि जयानन्दसूरि (आत्मारामजी) विरचितो जैनमतवृक्ष ग्रन्थः समाप्तः
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