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________________ (२१) जो जीव्हा च्छेदकी प्रतिज्ञा करी है, सो अच्छी नही करी, क्योंकि जो विना विचारें काम करता है, वो अवश्य आपदा में पड़ता है. तब पर्वत कहने लगाकि हे मातः! जो मैंने प्रतिज्ञा करी है, वो अब मैं किसी तरेंसेंभी दूर नही कर सक्ताहूं. तब माता अपने पर्वत पुत्रके दुःखकी पीडी हूइ दुःखिनी होकर वसुराजाके पास पहुंची, क्योंकि पुत्रके जीवितव्य वास्ते कौन जैसी है, जो उपाय न करे? जब वसुराजाने अपने गुरुकी पत्नीकों आती देखी तब सिंहासनसे उठके खडा हुआ, और कहने लगाकि, मैनें आज क्षीर कदंबकका दर्शन करा जो माता तुजकों देखी. अब हे मातः? कहो (आजा करो) मैं क्या करूं? और क्या देऊ? तब ब्राह्मणी कहने लगीकि, तूं मुजे पुत्रकी भिक्षा दे; क्योंकि, विना पुत्रके मैंने हे पुत्र! धन धान्य क्या करणा है ? तब वसुराजा कहने लगा हे मातः! मेरेको तो पर्वत पू. जने और पालने योग्य है, क्योंकि, गुरूकीतरें गुरू के पुत्रकी साथ भीवर्तना चाहिये, यह श्रुतिका वाक्य है, तो फेर आज किसकों कालने क्रोधमें आकर पत्र भेजा है, जो मेरे भाइ पर्वतको मारा चाहता है?
SR No.010504
Book TitleJain Mat Vruksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1900
Total Pages93
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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