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बेटा पर्वत, ( २ ) और मैं (नारद) हमतीनो पढ़ते थे, अकदा समय, हमतो तीनों जन पाठ करने के श्रमसें. रात्रिकों सो गयेथे, और उपाध्याय जागताथा. हम छत उपर सूतेथे. तब दो चारण साधु ज्ञानवान् आ काशमें परस्पर वार्ता करते चले जातेथे, कि यह क्षीरकदंबक उपाध्याय के तीन छात्रोंमेंसुं दो नरकमें जावेंगें, और एक स्वर्ग मे जायेगा. यह सुनियोंका कहना सुनकरके उपाध्याय चिंता करने लगा, कि जब मेरे पढाये हूये नरकमें जायेंगे तब यह मुजकों बहुत दुःख है, परंतु इन तीनोंमेंसुं नरक कौन जायेंगे ? और स्वर्ग कौन जायगा ? इस बातके जानने वास्ते तीनोंकों एक साथ बुलाये. पीछे गुरुने हम तीनोंकों एकैक पीठिका कुक्कड दीया, और कहदी - याकि इनकों ऐसी जगेमें मारो जहां कोइभी न दे - खता होवे ? पीछे वसु और पर्वत यह दोनों शून्य जगाओंमें जाकर दोनों पीटिके बनाये कुकडोंकों मार ल्याये, और मैं (नारद) उस पीठिके कुडकों लेकर बहुत दूर नगरसें वाहिर चला गया. जहां कोइभी नहीथा, तहां जाकर खडा हुआ, चारों और देखने लगा, और मनमें यह तर्क उत्पन्न हुआ, कि