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णधर, और, १८ गच्छ. ' अ-लंकाका राजा रावण, जब दिगविजय करने वास्ते देशोंमें चतुरंग दललेकर, राजाओंकों अपणी आज्ञा मना रहाथा; इस अवसरमें, नारद मुनि,लाठी सोटे, ओर, लात, धूसयोंकापीवाहूआ, पुकारकरता हूआ, रावण के पास आया, तब रावणने नारदकों
छाकि, तुजको किसने पीटा है? तब नारदने कहाकि, राजपुर नगरमें मरूत नामा राजा है, सो मिथ्या दृष्टि है, वो ब्राह्मणा मासोंके उपदेशसे यज्ञ करने लगा. होम के वास्ते, सौ निकोंकीतरे, वे बा. ह्मणा भास, अरराट शब्द करते हू, जैसें विचारे पशुओंकों यज्ञमें मारते दूओ, मैनें देखे, तब मैंने आ. काशसें उतरके जहां मरूत राजा ब्राह्मणों के साथमें बैठाथा, तहां आकर मरूत राजाकों कहाकि, यह तुम क्या करने लग रहे हो ? तब मरुत राजाने कहा, ब्राह्मणोंके उपदेशसें देवताओंकी तृप्ति वास्ते, और । स्वर्ग वास्ते, यह यज्ञ, मैं, पशुओंके बलिदानसें करताहूं. यह महाधर्म है. (नारद रावणसें कहता है.) तब मैनें, मरुत राजाकों कहाकि,हे राजन् ? जो वेदों में यज्ञ करना कहा है, वो यज्ञ मैं तुमको सुनातां.