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“ आत्मा तो यज्ञका यष्टा अर्थात् करने वाला है तथा तपरूप अग्नि है, ज्ञानरूप धृत है, कमरूप इंधन है, क्रोध, मान, माया, और लोभादि पशु है, सत्य बोलने रूप यूप अर्थात् यज्ञस्तंभ है, तथा सर्व जीवोंकी रक्षा करणी यह दक्षिणा है, ज्ञान, दर्शन, चारित्र यह रत्नत्रयी रूप त्रिवेदी है. यह यज्ञ वेदका कहा हुआ है. जैसा यज्ञ जो योगाभ्यास संयुक्त करे, वो करने वाला मुक्तरूप हो जाता है.औरजो राक्षस तुल्य होके छागादि मार के यज्ञ करता है, सोमरके घोर नरकमें चिरकाल तक महादुःख भोगता है. हे राजन्! तुं उत्तम वंशमें उत्पन्न हुआ है, बुद्धिमान है, इस वास्ते इस व्याधोचित पापसे निवर्त्तन होजा. जे कर प्राणीवधसेंहीजीवोंकों स्वर्ग मिलता होवे, तब तो थोडेही दिनोमें यह जीवलोक खाली हो जावेगा यह मेरा वचन सुनके यज्ञकी अग्निकीतरें प्रचंड हुआ होये ब्राह्मण हाथमें लाठी, सोटेलेकर सर्व मेरेकों पीटने लगे, तब जैसें कोइ पुरुष नदीके पूरसे डरकर दीपेमें चला आता है, तैसें मैं दौडता हूआ तेरे पास पहुंचाहूं. हे रावण, हे राजन् बिचारे ! निरपराधी पशु मारे जाते है, तुं तिनकी रक्षा करणे में तत्पर