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________________ . (६१ ) .. (५२) . - (३६) श्री देवसूरि. .. - (६०) (३७) श्री सर्वदेवसूरि. (६१) -- (३८) श्री यशोभद्रसूरि, तथा श्री नेमिचंद्रसूरि, दोनों गुरूभाइ, और दोनोंही श्री सर्वदेवसूरिके पाट उपर हो, जिसमें श्री नेमिचंद्रसूरिकी शाखा - अलग हुई. अ-श्री नेमिचंद्रसूरि. (१) श्री उद्योतनसूरि. (२) श्री - वर्द्धमानसूरि. (३) श्री जिनेश्वरसूरि तथा श्री बुद्धि _ सागरसूरि. (४) इनोंनें अष्टकवृत्ति, पंचलिंगी प्रकरण, - और बुद्धिसागर व्याकरणादि ग्रंथ बनाये है. . श्रीजिनचंद्रसूरि, संवेग रंगशाला ग्रंथकर्ता.(५) - श्री अभयदेवसूरि, नवांगीवृत्ति, तथा श्री स्थंभन पार्श्वनाथ प्रतिमा प्रगट कर्ता. विक्रमात्, ११३५. म- तांतरसे ११३९, में स्वर्ग. (६) श्री जिनवल्लंभसूरि. पिंडविशुद्धि,भवारिवारण, वीरचरित्र, षडासीप्रकरण, -... संगपट्टक आदि ग्रंथकर्ता. (७) श्री जिनदत्तसूरि. -संदेह दोलावली. और सार्द्ध शतक वृत्ति कर्ता (८)
SR No.010504
Book TitleJain Mat Vruksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1900
Total Pages93
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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