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________________ पिणी के तीसरे चौथे आरे अर्थात् काल विभागमें, चौवीस २४ अरिहंत तीर्थकर, अर्थात् सच्चे धर्म के कथन करनेवाले उप्तन्न होते है. ऐसे अतीत कालमें अनंत तीर्थकर हो गयेहै, और आगामी कालमें अ. नंत होवेमे; परंतु इस अवसर्पिणीकालमें छ हिस्सों मलं तीसरा हिस्सा थोडासा शेष रहा, तव नाभिकुलकरकी मरुदेवा भार्याकी कूरबसें श्री ऋषभदेवजीने जन्म लीया. तिस ऋषभदेवसे पहिले, सवें मनुष्य वनफल खातेथे, और वनोंहीमें रहतेथे, तथा धर्म, अधर्म, आदि जगत् व्यवहार को अच्छीतरेंसें नही जानतेथे. श्री ऋषभदेवकों पूर्व जन्मके करे जपत पादिके फलसें, गृहस्था वस्था मेही, मति, (१) श्रुति, (२) और अवधि, (३) यहती न ज्ञानथे, तिनके बलसें राज्य व्यवहार, जगत् व्यवहार, विद्या, कला, शिल्प, कर्म, ज्योतिष, वैदिकादि सर्व व्यवहार श्री ऋषभदेवनें प्रजाकों बतलाये. इसहेतुसें श्री ऋषभदेवके ब्रह्मा, ईश्वर, आदीश्वर, प्रजापति, जगत् स्रष्टा, आदिनाम प्रसिद्ध हुए. ऋषभदेवनें राज्य अपने बडे पुत्र भरतकों दीना, जिसके नामसे यह भरतखंड प्र. सिद्ध हुआ. और आप स्वयमेव दीक्षालेके, पृथिवी
SR No.010504
Book TitleJain Mat Vruksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1900
Total Pages93
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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