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( १९) सिद्धि हो गइकि सत्यके प्रभावसें वसुराजाका सिंहासन देवता आकाशमें थांभे रखते है. तब सब राजा डरके वसुराजाकी आज्ञा मानने लग गये, क्योंकि चाहो सची हो, चाहो जूठी हो, तोभी प्रसिद्धि जो है, सो पुरुषों कों जयकारिणी होती है.
एकदा प्रस्तावे, मैं (नारद ) शुक्तिमती नगरीमें गया, उहां जाकर पर्वतकों देखातो, वो, अपणे शिष्योंकों वेद पढा रहा है, और उसकी व्याख्या करता है तब वेदमें एक जैसीश्रुति आइ. “अजैर्यष्टव्यमिति” पर्वतने इसश्रुतिकी असी व्याख्या करी, जो 'अजा' नाम छागका (बकरीका) है तिनोंसें यज्ञ करना, अर्थात् तिनकों मारके तिनके मांसका होम करना. तब मैनें (नारदने) पर्वतकों कहाकि हे भ्रातर! यह व्याख्या तुं क्या भ्रांतिसें करताहै ? क्यों कि, गुरु श्री.क्षीर कदंबकने इसश्रुतिकी जैसी व्याख्या नही करी है; गुरुजीने तो, तीन वर्षका- . धान्य पुराणे जौंका असा अर्थ, यह श्रुतिका करा है. “नजायंतइत्यजाः" जो बोनेसें न उत्पन्न होवे, सो अजा, असा अर्थ श्री गुरुजीने तुमकों, और हमकों शिख लायाथा; वो अर्थ तुमने किस हेतुसें भूला