Book Title: Jain Mat Vruksha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 33
________________ (२३) सभापति होकर स्फाटिकके सिंहासन ऊपर बैठा. तब पर्वतने और मैनें (नारदने) अपनी अपनी व्याख्याका पक्ष सुणाया, और असाभी कहाकि, हे राजन् ! तूं सत्य कहदेकि, गुरूजीनें इन दोनों अर्थों मेंसुं कौनसा अर्थ कहाथा ? तब वृद्ध ब्राह्मणोंने कहाकि, हे राजन् ! तूं सत्य सत्य जो होवे, सो कहदे. क्योंकि, सत्यसेंही मेघ वर्षता है. सत्यसेंही देवता सिद्ध होते है. सत्यके प्रभावसेंही यह लोक खडा है. _और तुं पृथिवीमें सत्यवादी सूर्यकी तरें प्रकाशक है, इस वास्ते सत्यही कहना तुमको उचित है. और इससे अधिक हम क्या कहै ? यह वचन सुनकरभी वसुराजाने अपने सत्य बोलनेकी प्रतिज्ञाकों जलांजलि देकर “अजान मेषान गुरुवाख्य दिति” अर्थात् अजाका अर्थ गुरूने भेष (बकरे) कहेथे. ऐसी साक्षी वसुराजाने कही. तब इस असत्यके प्रभावसें . राज्याधिष्टायक व्यंतर देवतानें वसुराजाके सिंहास नको तोड़के, वसुराजाकों पृथिवी के ऊपर पटकके __ मारा. तब बसुराजा मरके सतमी नरकमें गया. .. ___ “वसुराजाके पीछे राज्य सिंहासन ऊपर वसुराजाके आठ पुत्र, पृथुवसु, (१) चित्रवसु, (२) वासन,

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