Book Title: Jain Mat Vruksha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 45
________________ . . . . . (३५ ) "तब तिस बालकके पास आइ. जब बालककों देखा - तो, वो बालक, पिप्पलका फल स्वयमेव मुखमें पडे कोंचबोल रहाहै, तब तिसका नाम भी 'पिप्पलाद' ... रख्खा, और अपणे स्थानमें लेजाके यत्नसें पाला, .. और वेदादि शास्त्र पढाये. पिप्पलाद बडा बुद्धिमान हूआ. तिसने बहुत वादीयोंका अभिमान, वादमें .. हराके दूर करा. तब याज्ञवल्क्य, और सुलसा, पिप्प लादके साथ वाद करनेकों आया. पिप्पलादने दो नोंकों वादमें जीत लीये, और सुभद्रा मासीके क- हनेसें जाना कि, यह दोनों मेरे मातापिता है, और " - मुजे जन्मतेको निर्दय होकर छोड गयेथे. जब कि . प्पलाद, बहुत क्रोधमें आया, तब याज्ञवल्क्य, और सुलसाके आगे मातृमेध पितृमेध यज्ञोंकों युक्तिसें .. श्रुतियोंद्वारा स्थापन करके, पितृमेध याज्ञवल्क्य कों, और मातृमेधमें सुलसाकों मारके होम करा.यह - पिप्पलादं मीमांसक मतकी प्रसिद्धि करने में मूख्य - आचार्य हुआ. इसका बातली नामा शिष्य हुआ. ' इस तरेसें दिनप्रतिदिन हिंसक यज्ञ बढते गये. जब से जैन, और बौद्धादिकोंका जोर बढा, तबसें मंद हो - “गये. यह वृत्तांत महीधर कृत यजुर्वेद भाष्यमें, आव

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