Book Title: Jain Mat Vruksha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 63
________________ ( ५३ ) हागिरि, तथा आर्य सुहस्ति सूरि. [C] श्री बहुल, और बलिरसह. (९) श्री स्वाति सूरि. (१०) श्री श्यामाचार्य. [११] श्री शांडिलाचार्य. (१२) श्री जीतधर. (१३) श्री आर्य समुद्र. (१४) श्री आर्य मंगु. (१५) श्री आर्य नंदीलक्षण. (१६) श्री आर्य नागहस्ति. (१७) श्री रेवती नक्षत्र. (१८) श्री सिंहाचार्य. [१९] श्री स्कंदिलाचार्य. (२०) श्री हेमवत्. (२१) श्री नागार्जुन. (२२) श्री गोविंदवाचक. (२३) श्री भूतदिन. (२४) श्री लोहिताचार्य. (२५) श्री दूष्यगणि. (२६) श्री देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण. (२७) (२०) वीशमें पाट ऊपर जो श्री स्कंदिलाचार्य लिहै, सो किसी किसी पट्टावलीमें चौवीशमें पाट उपर लिखे है. सबबकि, उस पट्टावली लिखने वालेने, श्री महावीर स्वामीसें पट्टावली लिखनी शुरु करी है, और श्री भद्रबाहु स्वामी. १, श्री आर्य सुहस्तिसूरि, २, और श्री बलिस्सहसूरि, ३, इन तीनो - आचार्य को अलग अलग पाट ऊपर लिखे है. (२३) तेवीसमें पाट ऊपर जो श्री गोविंदवाचक लिखें है, सो किसी किसी स्थानमें नहीभी लिखे है.

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