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सो सर्व ब्रह्मरूपही है. जब एकही ब्रह्म हुआ, तब कौन किसीकों मारता है ? इस वास्ते यथा रुचिसें यज्ञोंमें जीव हिंसा करो, और तिन जीवोंका मांस भक्षण करो. इसमें कुछ दोष नहीं है. क्योंकि, देवो द्देश करनेसें मांस पवित्र होजाताहै. इत्यादि उपदेश देकर, सगरराजाकों अपने मतमें स्थापन करके अं तर्वेदी कुरुक्षेत्रादिमें, वो पर्वत, यज्ञ कराता हुआ. तब महाकाल असुर अवसरपाके, राजसूयादिक यज्ञभी कराता हूआ, और जो जीव यज्ञमें मारे जाते थे, तिनको विमानमे बैठाके, देवमायासें देखाता हुआ. तब लोकोंकोंभी प्रतीत आ गइ. पीछे वो निःशंक होकर जीव हिंसा रूप यज्ञ करने लगे, और पर्वतका मत मानने लगे, सगर राजाभी, यज्ञ करनेमें बड़ा तत्पर हुआ. सुलसा, और सगर, दोनों मरके नरकमें गये, तब महाकालासुरने सगर राजा को मार पीटादिक महादुःख देके अपणा वैर लीयाः इसवास्ते हे रावण ! पर्वत पापीसें यहजीवहिंसा रूप यज्ञ विशेषकरके प्रवर्त्त हुए है. इत्यादिक वृत्तांत श्री आवश्यक सूत्र, श्री हेमचंद्राचार्य विरचित त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित, आचार दिनकरादि ग्रंथोमें विस्तार पूर्वक है..
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