Book Title: Jain Mat Vruksha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 37
________________ ... ( २७ ) . दीइ चाहती हूं. और तूंतो, क्या जाने स्वयंवरमे किसकों देइ जावेगी? मेरे मनमें यहशल्य है, इस वास्ते तुने स्वयंवरमें सर्व राजाओंको छोडके मेरे भतीजे मथुपिंगलकों वरना. तब सुलसाने माताका कहना स्वीकार करलीया. और मंदोदरीने यह सर्व वृत्तांत सुनकर सगर राजाकों कहदीया. तब सगर राजाने अपने विश्वभूति नामा पुरोहितकों आदेश दीया. वो विश्वभूति, बडा कवि था. उसने तत्काल राजा के लक्षणोंकी संहिता बनाइ. तिस संहितामें जैसे लिखाकि जीससे सगर तो शुभ लक्षणोवाला बनजावे, और मधुपिंगल; लक्षणहीन सिद्ध हो जावे. तिस पुस्तकको संदूकमें बंध करके रख छोडा. जब . सब राजा आकर स्वयंवरमें अकिटे हुआ, तब सगर, की आज्ञासें विश्वभूतिने वो पुस्तक काढा. और सगरने कहाकि जो लक्षणहिन होवे, तिसकों यातो. मारदेना, या स्वयंवरसे बाहिर निकाल देना. यह . कहना सबीने मानलीया. तब पुरोहित, यथा यथा. पुस्तक वाचता गया, तथा तथा मधुपिंगल, अपनेकों अपलक्षणवाला मानकर लजावान होता गया, और अंतमे स्वयंवरसे आपहि निकल गया. तब सुलसा.

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