Book Title: Jain Mat Vruksha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 24
________________ . (१४) हो. जैसे मैं तेरे शरणमें बच्चाहू, असें तुं पशुओंकों. भी बचाव. तब रावण विमानले उत्तर के मस्त राजाके पास गया, मरुत राजाने रावणकी बहुत पूजा भक्ति करी, और आदर सन्मान करा. तब रावण कोपमें होकर मरुतराजाको असें कहता हूआ. अरे! तुं नरकका देनेवाला यह या क्या कर रहा है ? क्योंकि धर्म तो अहिंसा रूप सर्वत्र तीर्थकरोंने कहा है. और सोइ धर्ष जगत्के हितका करने वाला है. जब तुमने पशुओंको मारके धर्म समझा, तब तु. मकों हितकारक क्योंकर होवेगा ? इस वास्ते यह यज्ञ तुमकों दोनों लोको अहितकारक है, इसकों छोड़ दो, नहीं तो इस बझका कल तुमकों इस लोकमें तो मैं देताहूं, और परलोकमें तुमारा नरकमें वास होगा. यह सुनकर बरुत राजाने यज्ञ करना छोड दीपा, कोकि समयकी आजा उस वखत जैसी भयंकरथी, कि कोइ उसको उल्लंघन नाह कर सक्ता था. ___ यह कथन, भीमाश्यक सूत्र, आचारदिनकर, विष्टि शलाका सुरूष चरितादि ग्रंथों में है. . इस पूर्वोक्त कथाला यहभी मालुम होजाताहै,

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