Book Title: Jain Mat Vruksha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 28
________________ ( १८ ) ने शोचाकि, पर्वत, और वसुके पढानेकी मेहेनत, मैनें व्यर्थही करी. मैं क्या करूं? पानी, जैसे पात्रमें जाता है, वैसाहीबन जाता है. विद्याकाभी यही स्वभाव है. जवाणोंसे प्यारा पर्वत पुत्र और पुत्रसें प्यारा वसु, यह दोनों नरक में जायगें, तो सुजे फेर घरमें रहकर क्या करणा हैं? असें निर्वेदसें क्षीर कदं TE उपाध्यायने दीक्षा ग्रहण करी, और साधु हो गया. 'तिसके पद ऊपर पर्वत बैठा, क्योंकि व्याख्या करणे में पर्वत as विचक्षणथा. और मैं ( नारद ) गुरु प्रसादसें सर्व शास्त्रों में पंडित होकर अपणे स्थानमें चला आया. तथा अभिचंद्र राजाने राज्य छोडकर संयम लीया, और वसुराजा राज्य सिंहासन ऊपर बैठा. वसुराजा जगत् में सत्यवादी प्रसिद्ध हो गया, अर्थात् वसुराजा जूठ नही बोलता है, औसा प्रसिद्ध हो गया. वसुराजाने भी, अपनी प्रसिद्धि को कायम रखने वास्ते, सत्यही बोलना अंगीकार कीया, वसुराजाको एक स्फाटिकका सिंहासन गुप्तपणे असा मिलाकि - सूर्य के चांदणे में जब वसुराजा उसके ऊपर बैठताथा, तव सिंहासन लोकोंकों बिलकुल नही दीख पडताथा, तब लोकोंमें यह प्र

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