Book Title: Jain Mat Vruksha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 16
________________ देवकी चिता जले पीछे दाढादिक सर्वतो. देवता ले गये, शेष भस्म अर्थात् राख रह गई, सो ब्राह्मणों ने थोडी थोडी सर्व लोकोंकों दीनी, तिस राखको लोकोंने अपने मस्तक उपर त्रिपुंड्रा कारसें लगाई, तब सें त्रिपुंड्र लगाना शुरू हुआ. यह सर्व वृत्तांत आवश्यक सूत्रादि ग्रंथोंमें है. (२) श्री अजितनाथ अरिहंत, तिनके ९५ गणधर, और, ९५ गच्छ गणधर उसकों कहते है, जो प्रथम बड़े शिष्योंमें द्वादशांगीके जानकार, और १४ चौदह पूर्व के गूंथने अर्थात् रचने वाले होते है. __ श्री अजितनाथ अरिहंत के वखत में दूसरा सगर चक्रवर्ती हुआ. यह कथन आवश्य कादि सूत्रों में है. श्री संभवनाथ अरिहंत, तिनके १०२, गणधर, और, १०२, गच्छ. जिन साधुओंकी एक सरिषी वांचना होवे, तिनका समुदाय; अथवा घणे कुलाका समूह होवे, सो,गच्छ; अर्थात् साधुओका समुदाय. यह कथन श्री आवश्यक सूत्रादि ग्रंथों में है. श्री अभिनंदननाथ अरिहंत, तिनके ११६, गण

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