Book Title: Jain Mat Vruksha
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 19
________________ अपने आपको सर्वमें मुख्य ठहराये. यह कथन श्री - भगवती सूत्र, आवश्यक सूत्र, आचार दिनकर आ दि ग्रंथों में है... .. श्री शीतलनाथ अरिहंतः तिनके ८१, गणधर, और, ८१, गच्छ. आवश्यकादौ.. अ-जब श्री शीतलनाथ दशमें अरिहंत हुए, तब तिनोंने फिर जैनधर्मकी प्रवृत्ति करी; परंतु जंगली ऋषि ब्राह्मणोंने तिनका उपदेश न माना किंतु भगवान् शीतलनाथके विरूद्ध प्ररूपणा करके, वेद धर्म ऐसा नाम रखके एकमत चलाया. तिसमतको बहुत लोक मानने लगे, तब वेद धर्म जगत्में प्रसिद्ध हुआ. ऐ सेंही श्री धर्मनाथ तीर्थकर भगवान तक सर्व जगे कितनेक काल जैन धर्म व्यवच्छेद होता गया, और वेद धर्म प्रबल हो गया. यदुक्त मागमे-"सिरि भरहचक्कबट्टी आयरिय वेयाण विस्सु. उप्पत्ति माहण पढणत्यमिणं कहियं सुहषाण विवहारं ॥ १॥ जिणतित्थेबुच्छिण्णे मिळते माहणे हिंतेठ विया असंजयाण पूआ अप्पाणं काहि आलेहिं ॥२॥” इनदोनों गाथाका भावार्थ यहहै. श्री ऋषभदेवके पुत्र भरत

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