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अङ्क ९-१० ]
दया कोमल परिणामोंका होना न्याय है और जीवोंका मारना अन्याय है । इस कारण यह सिद्ध हो गया कि, सब जीवों पर दया करनेसे विशुद्ध वृत्तिको धारण करनेवाले जैनी लोग ही सब वर्णोंमें उत्तम हैं, और द्विज हैं । वे वर्णान्तपाती अर्थात् वर्ण में गिरे हुए नहीं हैं । " मूल श्लोक ये हैं:
ब्राह्मणोंकी उत्पत्ति |
भूयोऽपि संप्रवक्ष्यामि ब्राह्मणान् सत्क्रियोचितान् । जातिवादावलेपस्य निरासार्थमतः परं ॥ १२७ ॥
उपर्युक्त श्लोकोंसे सिद्ध है कि भरतमहाराके ब्राह्मण बनाने से पहले से ब्राह्मण मौजूद थे ब्रह्मणोऽपत्यमित्येवं ब्राह्मणाः समुदाहृताः । और वे अपनेको ब्रह्माकी सन्तान बतलाते थे जैसा' ब्रह्मा स्वयंभूर्भगवान्परमेष्ठी जिनोत्तमः ॥ १२७॥ कि इस पंचम कालके ब्राह्मण बतलाते हैं और. सह्यादि परम ब्रह्मा जिनेंद्रो गुणबृंहणात् । a लोग ब्रह्माकी कथाको उस ही प्रकार मानते परं ब्रह्म यदायत्तमामनंति मुनीश्वराः ॥ १२८ ॥ थे जिस प्रकार आज कल मानते हैं । तब ही नैणाजिनधरो ब्रह्मा जटाकूर्चादिलक्षणः । तो भरत महाराजने अपने बनाये हुए ब्राह्मणोंका यः कामगर्दभो भूत्वा प्रच्युतो ब्रह्मवर्चसात् ॥ १२९ ॥ समझाया कि ब्रह्मा वह नहीं है जिसको ये दिव्यमूर्तेर्जिनेंद्रस्य ज्ञानगर्भादनाविलात् । मिथ्यात्वी ब्राह्मण मानते हैं; किन्तु श्रीजिनेंद्र समासादितजन्मानो द्विजन्मानस्ततो मताः ॥ १३० ॥ देव ही ब्रह्मा हैं । भरत महाराजको ब्राह्मणोंकी
वर्णातःपातिनो नैते मंतव्या द्विजसत्तमाः । व्रतमंत्रादिसंस्कारसमारोपितगौरवाः ॥ १३१ ॥ वर्णोत्तमानिमान् विद्मः शांतिशौचपरायणान् । संतुष्टान् प्राप्तवैशिष्टयानक्लिष्टाचारभूषणान् ॥ १३२ ॥ क्लिष्टाचाराः परे नैव ब्राह्मणा द्विजमानिनः । पापारंभरताः शाश्वदाहत्य पशुघातिनः ॥ १३३ ॥ सर्वमेधमयं धर्ममभ्युपेत्य पशुघ्नतां । का नाम गतिरेषां स्यात्पापशास्त्रोपजीविनां ॥ १३४ ॥ प्रभावका इतना भारी असर पड़ा कि वे यह भी. चोदनालक्षणं धर्ममधर्मे प्रतिजानते । भूल गये कि हमने तो ब्राह्मणोंका एक पृथक् ये तेभ्यः कर्मचांडालान् पश्यामो नापरान् भुवि ॥ १३५ ॥ ही वर्ण स्थापित किया है; किन्तु उनको इन पार्थिवैर्दण्डनीयाश्च लुंटका पापपंडिताः । मिथ्यात्वी ब्राह्मणों के मुकाबले में यही सिद्ध तेऽमी धर्मजुषां बाह्या ये निघ्ननंत्यघृणाः पशून् ॥ १३६ ॥ करते बन पड़ा कि सभी जैनी लोग ब्राह्मण पशुहत्यासमारंभात्क्रव्यादेभ्योऽपि निष्कृपाः ।
इस प्रसिद्धिको भी मानना पड़ा कि जो ब्रह्माकी संतान हो वह ही ब्राह्मण है । इसकी पूर्ति उन्होंने इस तरह पर कर दी कि जो श्रीजिनेंद्रदेवकी वाणीको मानता है वह ही जिनेंद्रदेव अर्थात् ब्रह्माकी संतान है और वह ही ब्राह्मण है । इससे स्पष्ट सिद्ध है कि उस समय भरतमहाराजके हृदय पर उन मिथ्यात्वी ब्राह्मणों के
हैं, क्योंकि सभी जैनी जिनेंद्र देवकी वाणीको
यद्युच्छ्रतिमुशंत्येते हंतैवं धार्मिका हताः ॥ १३७ ॥
श्रुतिस्मृतिपुरावृत्तवृत्तमंत्र क्रियाश्रिता ।
देवता लिंगकामांतकृता शुद्धिर्द्विजन्मनाम् ॥ १३९ ॥
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ये विशुद्धतरांवृत्तिं तत्कृतां समुपाश्रिताः । ते शुक्लवर्गे बोद्धव्याः शेषां शुद्धेः बहिःकृताः ॥ १४० ॥ तच्छुध्यशुद्धी बोद्धव्ये न्यायान्यायप्रवृत्तितः । न्यायोदयार्द्रवृत्तित्वमन्यायः प्राणिमारणं ॥ १४१ ॥ विशुद्धवृत्तयस्तस्माज्जैना वर्णोत्तमा द्विजाः । वर्णातःपातिनो नैते जगन्मान्या इति स्थितं ॥१४२॥ -- पर्व ३९ ॥
मानते हैं । जो जिनेंद्र देवकी वाणीको मानता
मलिनाचारिता ह्येते कृष्णवर्गे द्विजब्रुवा: ।
जैनास्तु निर्मलाचाराः शुक्लवर्गे मता बुधैः ॥ १३५ ॥ है, वह ब्रह्माकी सन्तान है और जो ब्रह्माकी
सन्तान है वह ब्राह्मण हैं, अर्थात् सब ही जैनी
लोग ब्राह्मण हैं ।
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