Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 61
________________ अङ्क ९-१० ] सर मिलते रहते हैं; किन्तु एक स्वतन्त्र और सद्विचार- प्रिय मनुष्य के लिए वहाँकी हवा हानिप्रद है । शासनविभाग नियम और नीतियोंकी मर मार रहती है। कितना ही चाहो पर वहाँ कड़ाई और ढाँट डपटसे बचे रहना असम्भव है । इसी प्रकार बहुत सोचविचार के पश्चात् उन्होंनें निश्चय किया कि किसी जमींदार के यहाँ ' मुख्तार आम' बन जाना चाहिए | वेतन तो अवश्य कम मिलेगा किन्तु दीन खेतिहरों से रात दिन सम्बन्ध रहेगाउनके साथ सद्व्यवहारका अवसर मिलेगा । साधारण जीवन निर्वाह होगा और विचार दृढ होंगे। पछतावा । कुँवर विशालसिंहजी एक सम्पत्तिशाली जमींदार थे। पं० दुर्गानाथने उनके पास जाकर प्रार्थना की कि मुझे भी अपनी सेवामें रखकर कृतार्थ कीजिए । कुँवर साहबने इन्हें सिर से पैर तक देखा और कहा - पण्डितजी, आपको अपने यहाँ रखने में मुझे बड़ी प्रसन्नता होती किन्तु आपके योग्य मेरे यहाँ कोई स्थान नहीं देख पड़ता । दुर्गानाथने कहा- मेरे लिये किसी विशेष स्थानकी आवश्यकता नहीं है। मैं हरएक काम कर सकता हूँ | वेतन आप जो कुछ प्रसन्नतापूर्वक देंगे मैं स्वीकार करूँगा । मैंने तो यह संकल्प कर लिया है कि सिवा किसी रईसके और किसीकी नौकरी न करूँगा | कुँवर विशालसिंहने अभिमान से कहा- रईसकी नौकरी नहीं राज्य है । मैं अपने चपरासियोंको दो रुपया माहबार देता हूँ और वे तंजेब के अंगरखे पहनकर निकलते हैं । उनके दरवाजों पर घोड़े बँधे हुए हैं । मेरे कारिन्दे पाँच रुपये से अधिक नहीं पाते किन्तु शादी विवाह वकीलों के यहाँ करते हैं । न जाने उनकी कमाई में क्या बरकत होती है। बरसों तन वाहका हिसाब नहीं करते। कितने ऐसे हैं जो विना तनख्वाह के कारिन्दगी या चपरासगरी को तैयार बैठे हैं । परन्तु अपना यह नियम Jain Education International ४३३ नहीं । समझ लीजिए, मुख्तार आम अपने इलाके - में एक बड़े जमींदार से भी अधिक रौब रखता है । उसका ठाट वाट उसकी हुकूमत छोटे छोटे राजाओंसे कम नहीं । जिसे इस नौकरीका चसका लग गया है उसके सामने तहसीलदारी झूठी है । पण्डित दुर्गानाथने कुँवर साहबकी बातोंका समर्थन न किया जैसा कि करना उनको सभ्यतानुसार उचित था । वे दुनियादारीमें अभी कच्चे थे, बोले- मुझे अबतक किसी रईसकी नौकरीका चसका नहीं लगा है। मैं तो अभी कालेज से निकला आता हूँ । और न मैं इन कारणोंसे नौकरी करना चाहता हूँ जिन्हें आपने वर्णन किये । किन्तु इतने कम वेतनमें मेरा निर्वाह न होगा । आपके और नौकर असामियोंका गला दबाते होंगे। मुझसे मरते समय तक ऐसे कार्य्यं न होंगे । यदि सच्चे नौकरका सन्मान होना निश्वय है तो मुझे विश्वास है कि बहुत शीघ्र आप मुझसे प्रसन्न हो जायँगे । कुँवर साहबने बड़ी दृढता से कहायह तो निश्चय है कि सत्यवादी मनुष्यका आदर सब कहीं होता है । किन्तु मेरे यहाँ तनख्वाह अधिक नहीं दी जाती । इस प्रतिष्ठा शून्य उत्तरको सुनकर पण्डितजी कुछ खिन्नहृदय से बोले-तो फिर मजबूरी है । मेरे द्वारा इस समय कुछ कष्ट आपको पहुँचा हो तो क्षमा कीजिएगा । किन्तु मैं यह आपसे कह सकता हूँ कि ईमानदार आदमी आपको इतना सस्ता न मिलेगा । कुँवरसाहब ने मनमें सोचा कि मेरे यहाँ सदा अदालत कचहरी लगी ही रहती है। सैकड़ों रुपये तो डिगरी और तजवीजों तथा और और अँगरेजी कागजों के अनुवाद में लग जाते हैं । एक अँगरेजीका पूर्ण पण्डित सहज ही में मुझे For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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