Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 69
________________ अङ्क ९-१०] जैनसमाजके क्षयरोग पर एक दृष्टि । ४४१ जैनसमाजके क्षयरोग पर धर्म फूट कर रो रही थी। निदान उसे लज्जा त्या- सन् १८९१-१४, १६, ६३८. गनी पड़ी । वह रोती हुई पास जाकर बोली- सन् १९०१-१३, ३४, १४०. प्राणनाथ, मुझे और इस असहाय बालकको किस सन् १९११-१२, ४८, १८२. पर छोड़े जाते हो ? कुँवर साहबने धीरेसे कहा- अर्थात् १८९१ से लगाकर १९११ ई० पंडित दुर्गानाथ पर । वे जल्द आवेंगे । उनसे कह तकके २० वर्षों में ११ प्रतिशत कम हो गई । यदि देना कि मैंने सब कुछ उनके भेट कर दिया। यह घटोतरी इसी तरह जारी रही तो दोसौ या यह मेरी आन्तम बसीयत है। तीनसौ वर्षों में यह जैनधर्म भारतसे उठ जावेगा, अब तनिक भारतवर्षके अन्य धर्मावलम्बियों के बढ़ने और घटनेको देखिए:एक दृष्टि । सन् १८९१ से १९०१ सन् १९०१ से १९११ तक जनसंख्यामें तक जनसंख्यामें प्रतिशत बढ़ना या प्रतिशत घटना तथा (लेखक, श्रीयुत बाबू रतनलाल जैन घटना। बढ़ना। बी. ए. एल एल. बी.) हम लोग कहते आते हैं कि जैनधर्म अ- बोट + ३२.९ बढ़ना + १३.१ बढ़ना नादि कालसे है और यह धर्म एक समय भारत- ईसाई + २८ + ३२.६ , वर्षका मुख्य धर्म रहा है । इस धर्मको सेवन सिक्ख + १५.१ , + ६.३३ , . करके अनन्त जीव मुक्त होकर सच्चिदानन्द पदको । मुसलमान + ६.७ , पारसी प्राप्त हुए हैं । ऐतिहासिक प्रमाणोंसे भी यह सिद्ध हिन्द | -- .३ घटन + १५.०४, है कि जैनधर्म भारतवर्षका एक बहुत बड़ा धर्म जैनी -- ६.४ घटना रहा है । इस धर्मने सम्राट् चन्द्रगुप्त और खारवेल आदिके आश्रित रहकर केवल भारत- ऊपरके कोष्टकसे पता लग जायगा कि वर्षका ही नहीं संसार भरके जीवोंका कल्याण भारतकी सब जातियों के लोग बढ़े परन्तु अभागे किया है। प्राचीन जैन साहित्य पर दृष्टि डालनेसे जैनी घटे। १९०१ ई० से १९११ तकके दस विदित होता है कि इस धर्मके अनुयायी बड़े बड़े वर्षों में कल भारतवासी ११.८ प्रति सैकड़ा और दिग्गज और जगद्विजयी विद्वान् रहे हैं, और वे कल हिन्दु १५.०४ प्रति सैकड़ा बढ़े, किन्तु गणनाम भी कम न थे। ..... .. जैनी ६.४ प्रति सैकड़ा कम हुए। जैनी लोग भी पर आज जैनियोंकी संख्या तथा उसके अन्य भारतवासियोंकी तरह ११:८ प्रति सैकड़ा विद्वानों पर दृष्टि डालते ही मालूम पड़ जाता बढने चाहिए थे, परन्तु वे घटे हैं उलटे ६.४ प्रति है कि अब यह धर्म नामका ही धर्म रह गया सैकड़ा । जैनियोंकी वास्तविक घटोतरी १८.३ प्रति है । संसारके जीवोंकी उन्नति करनेसे इसने मुँह सैकड़ा हुई है । भला इस घटीका कोई हिसाब मोड़ लिया है और अब यह इस लोकसे लुप्त है ! जिस जातिमें मनुष्य-संख्या इस तेजीके होना चाहता है । इसकी जनसंख्याको देखिए साथ घटे क्या वह जाति-चाहे उसकी संख्या कि यह कितनी तेजीसे नाश हो रही है:- करोड़ोंकी क्यों न हो-जीवित रह सकती है ! + + । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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