Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 80
________________ ४५२ जाति खंडेलवाल ओसवाल अग्रवाल जैनहितैषी - Jain Education International पुरुष इसससे मालूम होगा कि २० वर्षमें खंडेल - वाल आधे हो गये, ओसवाल और भी कम हो और अग्रवाल प्रति शत १२ कम हो गये अग्रवाल जातिकी जनसंख्या अधिक है, इस कारण उसकी कमी सैकड़ा पीछे केवल . १२ हुई जब कि ओसवालों और खंडेलवालोंकी क्षति बहुत अधिक हुई है । क्योंकि इनकी संख्या युक्तप्रान्तमें बहुत कम है । इन जातियोंकी अधिक क्षतिका कारण यह है कि इनमें विवाह बड़ी कठिनाईसे होते हैं । विवाहका क्षेत्र छोटा होनेसे और गोत्र आदिकी अधिक झुंझटों से प्रायः बेमेल विवाह करना पड़ते हैं और इस प्रकारके विवाहों से जनसंख्याकी वृद्धिमें कितनी रुकावट पड़ती है, यह बतलानेकी जरूरत नहीं है । । १०४८ ६८३ २१११६ बड़ी जातियाँ धीरे धीरे घटती जाती हैं और घटते घटते छोटी हो जाती हैं । इसके बाद उनका क्षय होना शुरू होता है और अन्तमें वे नामशेष हो जाती हैं । जो जाति जितनी छोटी है, विवाहसंबन्ध करने में वह उतना ही अधिक कष्ट भोगती है और नाशके सन्मुख भी उतने ही शीघ्र जाती है । सन् १८९१ हमारी समझमें इधर की तमाम जैनजातियोंमें पारस्परिक विवाह होने लगना बहुत कल्याणकर होगा । इसमें न तो धार्मिक दृष्टिसे कोई हानि है और न सामाजिक दृष्टिसे । जैनशास्त्र इसका निषेध नहीं करते, वरन् उनमें तो ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य जैसे जुदा जुदा वर्णोंमें भी बेटीव्यवहार करनेकी आज्ञा है । इधर जितनी जैन जातियाँ हैं, वे सब वैश्य वर्णकी हैं । उनमें पहले भले ही कोई क्षत्रिय रही हों, परन्तु इस समय तो व्यवसाय के कारण वे सभी स्त्री ९३७ ५४४ १७४०० सन् १९११ पुरुष For Personal & Private Use Only [ भाग १३ ४७३ २२४ १८६५० स्त्री ६३ २० १५१४ वैश्य हैं। इन एक वर्णकी जातियोंके पारस्परिक सम्बधको कोई भी धर्मशास्त्र बुरा नहीं बतला सकता । जिन जातियोंमें एकसा व्यवसाय होता है, जिनका खानापीना रहनसहन एकसा है और जिनके धार्मिक सांसारिक विचार एकसे हैं, उनके पारस्परिक सम्बन्धमें सामाजिक दृष्टिसे भी कोई हानि संभव नहीं हो सकती लाभ अवश्य ही अगणित होंगे । विवाह करना बहुत सुगम हो जायगा, कन्याओंके लिए योग्य वर मिलने लगेंगे, किसीको अपनी कन्यायें लाचार होकर रोगी, दुर्बल, बूढ़े पुरुषोंको न देनी पड़ेगी, अनमेल और अनुचित विवाहसे होनेवाली मौतें न होंगी, आरोग्य और दीर्घजीवी सन्तान अधिक उत्पन्न होगी और छोटी छोटी जातियाँ नाशसे बचकर फिर अपने समूहको बढ़ाने में समर्थ होंगी । कुछ समय पहले मलकापुरके पोरवाड़ोंने मालवा और नीमाड़ के पोरवाड़ों को एक पत्र लिखा था । ये दोनों एक ही पोरवाड़ जातिकी शाखायें हैं, जिनका विवाहसम्बन्ध देशभेदके कारण किसी समयमें बन्द हो गया है । पत्रका सारांश यह है कि हमारी संख्या इतनी कम हो गई है कि, अब हमको अपनी पुत्रियोंको ठिकाने लगाना कठिन हो गया है । अब या तो हमारी कन्यायें कुँआरी रहेंगी, या उनका सम्बन्ध हमें अपने समीपके रिश्तेदारोंके साथ अनुचित रीतिसे करना होगा और या उन्हें अजैनों को देना होगा । यदि आप लोग हमारे साथ विवाहसम्बन्ध शुरू कर दें तो हमारा उद्धार हो जाय । यही दशा हमारी और भी अनेक जातियोंकी हो रही है । उन्हें नाशसे बचानके लिए इस पारस्परिक विवा हसे बढ़कर और कोई उपाय नहीं है । ( शेष आगे । ) www.jainelibrary.org

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