Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 88
________________ ४६० एम्पायर की हुई है, वही इस महावीरके इस्तीफा देनेसे आपकी होगी । दुनियाको आश्चर्यमें डुबानेवाले इनके पुराने हथखण्डे फिर किस्से कहानियों में ही रह जायँगे । समय पर चेत जाइए, नहीं तो आपको पछताना होगा । और आश्चर्य नहीं जो आप भी इस ' अनारी' पदसे अलग कर दिये जायँ । मंत्री महाशय सटपटाये और लगे खुशामद करने | सम्पादक महाशय आखिर बूढ़े ही तो ठहरे, खुशामद की जरा सी गर्मी से पिघलकर पानी हो गये । चसे लिख बैठे- मैं अपना इस्तीफा बड़ी खुशीसे वापस लेता हूँ । नौजवान प्रकाशकको हँसी आ गई । उसने तत्काल ही इस अनोखे इस्तीफेको प्रकाशित कर दिया। झगड़ा तै हो गया। पुराने दलमें खुशियाँ मनाई जाने लगीं और बाबू लोगों की नानी मर गई । - श्रीगड़बड़ानम्द शास्त्री । जैनहितैषी - शास्त्र - प्रामाण्य | ि परोक्ष प्रमाणके पाँच मैदोंमें आगम या शास्त्र भी एक प्रमाण है । यह भी वस्तु के सच्चे स्वरूप को जाननेका एक साधन है । परन्तु इसको एक मर्यादा के भीतर ही प्रमाणता है । शास्त्रप्रामाण्यका यह मतलब नहीं है कि, इसके माननेवाले अपनी सदसद्विवेकबुद्धिको –— खरा खोटा पहचाननेकी शक्तिको सर्वथा ही तिलाज्जुलि दे देवें और शास्त्र के नामसे वे चाहे जिसकी आज्ञाको सिरपर चढ़ाने लगें । शास्त्रों के आगे मस्तक झुकाने के लिए हम सदा प्रस्तुत हैं, परन्तु पहले हमें यह जान लेना होगा, इस बातकी परीक्षा कर लेनी होगी कि वे वास्तवमें शास्त्र हैं - शास्त्रोंके आप्तप्रणीत आदि लक्षणोंसे युक्त हैं; कहीं शास्त्रोंके नामसे अन्धश्रद्धालुओंके बाजारमें चलनेवाले नकली सिक्के तो नहीं हैं। शास्त्रों के Jain Education International [ भाग १३ प्रति जनसाधारणकी जो भक्ति और श्रद्धा है, वह इतनी बहुमूल्य और लुभानेवाली है कि उसको प्राप्त करनेको चाहे जिसका मन मचल सकता है— चाहे जिसकी इच्छा हो सकती है कि हम इनके द्वारा लोगों की श्रद्धा और भक्तिका उपभोग करें और अपना स्वार्थ साधन करें । अतएव हमें इस विषय में बहुत ही सावधान रहने की आवश्यकता है । हमें स्मरण रखना चाहिए कि इस समय इस प्रकारके न जाने कितने पोथे शास्त्रोंका नाम धारण करके हमारे यहाँके सरस्वती - भण्डारों के बहुमूल्य वेष्टनोंके परदों मेंसे हमारी विवेकबुद्धि पर तीव्र कटाक्षपात कर रहे हैं-व्यंग्यकी हँसी हँस रहे हैं । जब तक हममें श्रद्धा और भक्तिके साथ साथ विवेकबुद्धि भी रही, तबतक इस आगमप्रमाणता से हमें यथेष्ट लाभ होता रहा; परन्तु ज्यों ही हमारी श्रद्धा और भक्तिने विवेकका साथ छोड़ा - वह अन्धश्रद्धा या अन्धभक्तिके रूप में परिणत हो गई, त्यों ही इससे हमारी दुर्दशा होना शुरू हुई । जहाँ हम पहले ज्ञानके उपासक थे, सत्यके अनुयायी थे, वहाँ शास्त्रनामधारी जड़ वाक्योंके भक्त बन गये | अमुक पदार्थक स्वरूप वास्तवमें क्या है, इसके स्थान में अमुक शास्त्रमें वह कैसा बतलाया गया है, हम इसकी चिन्तामें रहने लगे। शास्त्रोंको वह अधिकार प्राप्त हो गया, जो थोड़े समय पहले रूस-सम्राट् जारको प्राप्त था । उनके वाक्य ही सर्वोपरि शासक बन गये । इधर अच्छे ज्ञानियों और अधिकारियोंकी कमी हो रही थी । फिर क्या - था, अन्धाधुन्धी शुरू हो गई। शासनका लोभ साधारण नहीं होता। जो अपात्र और अयोग्य थे उन्होंने भी इस लोभके फेर में पड़कर शास्त्रों की रचना करनी शुरू कर दी और उन्हें बहुमूल्य वेष्टना से वेष्टित करके सरस्वतीमन्दिरों में स्थापित कर दिया । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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