Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 90
________________ ४६२ जैनहितैषी [भाग १३ परन्तु पाँचसौ रुपयेकी बला तो बहुत दूर है, नोंसे मिलकर पत्रव्यवहार करके और सर्व प्रकासोसायटीकी संकुचित दृष्टिमें, ऐसे निबन्धके रकी सामग्रीकी सहायताका पूर्ण प्रबंध करके उन्हें लिए, यह दस रुपयेका इनाम भी आधिक जान उन कामोंमें लगाना चाहिए और इस बातका पड़ता है; और इस लिए वह इन दस रुपयोंमें खास खयाल रखना चाहिए कि वे विद्वान यहाँतक हक प्राप्त करना चाहती है कि स्वयं निराकुलतापूर्वक अपने कार्योंका संपादन करते लेखकको उस निबन्धके छपवाने या छपवानेके रहें। ऐसा प्रयत्न होने पर यथेच्छ निबंध लिखे लिए किसी दूसरेको इजाजत देनेका भी अधि- जा सकते हैं, और समाज तथा देशमें एक प्रकारसे कार न रहेगा ! ! ऐसी हालतमें कहना न होगा ठोस कामोंकी नीव पड़ सकती है । आशा है कि सोसायटीकी विवेकदृष्टिमें लेख लेख सब कि, उक्त सोसायटी तथा इस प्रकारकी दूसरी समान हैं-एक कहानी और तात्विक-विवेचन- जैनसंस्थायें भी इस नोटसे कुछ शिक्षा ग्रहण में परस्पर कोई भेद नहीं-जैसा पहाड़ खोदकर करेंगी और अपने कामोंका मार्ग मालूम करेंगी। नहर निकालना वैसा ही एक राजबाहेमेंसे कूल _ -जुगलकिशोर मुख्तार । ( नाली ) निकाल देना दोनों बराबर हैं !!! जिस समाजकी सभा सोसायटियाँ भी ऐसी २ खाद्य पदार्थों में मिलावट । ऐसी कदरदान और गुणग्राहक हों उसके संसारके सभी देशोंमें खाद्य पदार्थोकी उद्धारमें फिर भला विलम्बका क्या काम ! रक्षाके लिए बड़े कड़े नियम हैं । हिन्दू धर्महमारी रायमें अच्छा हो यदि उक्त सोसायटी शास्त्रोंमें खाद्याखायविचार पर बहुत कुछ अपनी ऐसी उदारता और कदरदानीकी विचार- लिखा गया है और बहुत अच्छा लिखा गया तरंगोंको गुप्त ही रक्खा करे, जिससे उन्हें पेप- है। कुछ समय पहले अँगरेजी पढ़े लिखे लोग रोंमें प्रकाशित करके, उसे व्यर्थ ही विद्वत्समा- अपने धर्मग्रन्थोंकी उन सारपूर्ण बातोंका जके सम्मुख हँसी और लज्जाका पात्र तो न मजाक उड़ाया करते थे। किन्तु भला हो बनाना बड़े । इसमें संदेह नहीं कि आजकल योरपके विज्ञानाचार्योंका कि जिन्होंने नित्य रहस्य, मीमांसा, परीक्षा और तात्त्विक विवेचना• नये सिद्धान्त निकाल कर कीटाणुवाद आदि स्मक निबंधोंके लिखे जानेकी बहुत बड़ी जरू- अनेक तथ्यपूर्ण सिद्धान्तोंका आविष्कार कर रत है। ऐसे निबंधोंसे न सिर्फ जैनसमाज बल्कि दिया । बाजारकी चीजें खाना, जते और कपडे समूचा भारतदेश प्रायः शून्य है। जिस समय पहने भोजन करना अब विज्ञानद्वारा भी अनुदेशमें आज्ञाप्रधानताका युग प्रवर्तित था, उस चित ठहरा दिया गया है। बेचारे स्मृतिकारों समय विना ऐसे निबंधोंके भी काम चल जाता और आचार्योंकी इज्जत रह गई। चौकेकी था । परन्तु अब इस परीक्षाप्रधानी युगमें ऐसा नष्टप्राय प्रथा अब फिर अपने असली रूपमें होना एक प्रकारसे असंभव है । इस लिए ऐसे प्रकट होने लगी है। निबंधोंके लिखाये जानेकी बहुत बड़ी जरूरत किन्तु अब तक खानेके उन पदार्थों के है। परन्तु उनके लिखानेका यह मार्ग नहीं है। विषयमें जिनमें धूर्त और स्वार्थान्ध व्यवसायी इतने भारी काम ऐसे ऐसे क्षुद्र नोटिसों द्वारा अन्य अनावश्यक ही नहीं स्वास्थ्यनाशक पदार्थों कभी साध्य नहीं हो सकते। उनके लिए बडे बड़े की मिलावट करके देशके स्वास्थ्यका नाश आयोजनोंकी जरूरत हैं। खास खास विद्वा- कर रहे थे हमारा ध्यान आकृष्ट नहीं हुआ था। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98