Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 68
________________ ४४० जैनहितैषी [भाग १३ रहती थी । किन्तु ये सब तो जमींदारीके अब इस कलेजेके टुकड़ेको किसे सौंपूँ, जो सिंगार हैं । विना इन सब बातोंके जमींदारी उसे अपना पुत्र समझे। लड़केकी माँ स्त्रीजाति कैसी ? क्या दिन भर बैठे बैठे वे मक्खियाँ मारें ? न कुछ जाने न समझे। उससे कारवार सँभ कुँवरसाहब इसी प्रकार पुराने ढंगसे अपना लना कठिन है। मुख्तार आम, गुमाश्ते, कारिन्दे प्रबन्ध सँभालते जाते थे। कई वर्ष व्यतीत हो कितने हैं परन्तु सबके सब स्वार्थी, विश्वासघाती। गये । कुँवरसाहबका कारवार दिनों दिन चमकता एक भी ऐसा पुरुष नहीं जिस पर मेरा विश्वास ही गया। यद्यपि उन्होंने ५ लड़कियों के विवाह बड़ी जमे। कोर्ट आव वाई सके सुपुर्द करूँ तो वहाँ धुमधामके साथ किये, परन्तु तिस पर भी उनकी भी ये ही सब आपत्तियाँ । कोई इधर दबायेगा बढतीमें किसी प्रकारकी कभी न हुई । हाँ, कोई उधर । अनाथ बालकको कौन पूछेगा ? शारीरिक शक्तियाँ अवश्य कुछ कुछ ढीली पड़ती हाय, मैंने आदमी नहीं पहिचाना ! मुझे हीरा गईं । बड़ी भारी चिन्ता यही थी कि इस बड़ी मिल गया था, मैंने उसे ठीकरा समझा ! कैसा सम्पत्ति और ऐश्वर्यका भोगनेवाला कोई उत्पन्न सच्चा, कैसा वीर, दृढ़प्रतिज्ञ पुरुष था। यदि न हुआ। भानजे भतीजे और नवासे, इस रियासत वह कहीं मिल जावे तो इस अनाथ बालकके पर दाँत लगाये हुए थे। दिन फिर जायँ । उसके हृदयमें करुणा है, कुवरसाहबका मन अब इन सांसारिक झग- दया है। वह एक अनाथ बालक पर तरस खायगा। डोंसे फिरता जाता था। आखिर यह रोना धोना हा ! क्या मुझे उसके दर्शन मिलेंगे। मैं उस किसके लिए । अब उनके जीवन नियममें एक देवताके चरण धोकर माथे पर चढाता । आँपरिवर्तन हुआ।द्वार पर कभी कभी साधू सन्त धूनी सुओंसे उसके चरण धोता । वही यदि हाथ रमाये हुए देख पड़ते । स्वयं भगवद्गीता और लगाये तो यह मेरी डूबती हुई नाव पार लगे । विष्णुपुराण पढ़ते। पारलौकिक चिन्ता अब नित्य | रहने लगी । परमात्माकी कृपा ! साधू सन्तोंके ठाकुर साहबकी दशा दिन पर दिन बिगड़ती आशीर्वादसे बुढ़ापेमें उनके एक लड़का गई। अब अन्तकाल आ पहुँचा ! उन्हें पंडित पैदा हुआ । जीवनकी आशायें सफल हुई। दुर्गानाथकी रट लगी हुई थी। बच्चेका मुँह देखते दुर्भाग्यवश पुत्रके जन्महीसे कुँवरसाहब शारी- और कलेजेसे एक आह निकल जाती । बार बार रिक व्याधियों में ग्रस्त रहने लगे । सदा वैद्यों पछताते और हाथ मलते । हाय ! उस देव और डाक्टरोंका तांता लगा रहता था । ताको कहाँ पाऊँ । जो कोई उसके दर्शन करा लेकिन दवाओंका उलटा प्रभाव पड़ता । दे आधी जायदाद उसके न्योछावर कर दूं। प्यारे ज्यो त्यों करके उन्होंने ढाई वर्ष बिताये। अन्तमें पंडित ! मेरे अपराध क्षमा करो । मैं अन्धा था, उनकी शक्तियों ने जवाब दे दिया। उन्हें. मालूम अज्ञान था । अब मेरी बाँह पकड़ो। मुझे डूबहो गया कि अब संसारसे नाता टूट जायगा। नेसे बचाओ। इस अनाथ बालक पर तरस अब चिन्ताने और धर दबाया-यह सारा माल खाओ। हितार्थी और सम्बन्धियोंका समूह असबाब, इतनी बड़ी सम्पत्ति किस पर छोड़ सामने खड़ा था। कुँवर साहबने उनकी ओर जाऊँ ? मनकी इच्छायें मनहीमें रह गई । लड़- अधखुली आँखोंसे देखा। सच्चा. हितैषी कहीं केका विवाह भी न देख सका । उसकी तोतली देख न पड़ा । सबके चेहरे पर स्वार्थकी झलक बातें सुननेका भी सौभाग्य न हुआ । हाय थी। निराशासे आँखें मूंद लीं । उनकी स्त्री फूट Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98