Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 76
________________ ४४८ जैनहितैषी [भाग १३ बने तैसे बाल्यविवाह बन्द कर देना चाहिए । पंजेसे बाहर नहीं हैं । यहाँके बालक ७-८ वर्षयदि कन्याओंका विवाह १५ वर्षसे कमकी के होते ही अश्लील शब्दोंको सुन सुनकर उनके आयुमें न होता तो जैनियोंमें २० हजार विध- उच्चारण करनेमें पटु हो जाते हैं। पहले तो वे वायें न होतीं। वे सधवा रहकर कमसे कम उनका भाव समझे बिना ही उच्चारण करते ४० हजार मनुष्य उत्पन्न करतीं, जिससे जैनि- रहते हैं, पीछे १२-१३ वर्षके लगभग पहुँचने, योंका नाश बहुत कुछ रुक जाता। लड़कियोंका पर उन अश्लील शब्दोंके द्वारा उत्पन्न हुए विवाह १५ वर्षसे पहले और लड़कोंका २० भावोंको प्रयोगमें लानेकी चेष्टा करने लग जाते. वर्षसे पहले कभी मत करो। इसके पहले दोनोंमें हैं । उनकी यह चेष्टा अनंगक्रीड़ा, हस्तही उत्तम सन्तान उत्पन्न करनेकी योग्यता नहीं मैथुन आदि दुष्ट दोषोंके रूपमें प्रकट होती आती। है । व्यभिचारकी यह पहली सीढ़ी है । .. ५ वृद्धविवाह । जैनसमाजमें कन्याओंकी बाल्यावस्थामें ये भाव अनंगक्रीड़ा आदिके संख्या बहुत ही कम है । इससे हजारों नवयुव- रूपमें और युवावस्थामें परस्त्रीसेवन, वेश्यागमन कोंको यों ही कुँआरा रहना पड़ता है। उस पर आदिके रूपमें प्रकट होते हैं । जहाँ ये भाव ये बूढ़े लोग अपनी कई कई शादियाँ करके और हृदयमें अंकित हो पाये कि फिर निकाले नहीं भी उनका हक मार देते हैं । जो कन्या किसी निकलते । ये उन्हें सदाके लिए व्याभचारी बना युवकसे शादी करके सुखपूर्वक जीवन व्यतीत गामी या वेश्यागामी बना हआ देखती हैं, अपने देते हैं । स्त्रियाँ भी जब अपने पुरुषोंको परस्त्रीकरती, और अनेक पुत्र कन्याओंकी माता होती, पातिव्रत्यसे शिथिल होने लगती हैं और अन्तमें . वही एक बूढ़े खूसटके पंजेमें फँसकर दुःखोंके दुराचारिणी बन जाती हैं। पाले पड़ती है, सन्तानहीन या रोगी सन्तानकी यह व्यभिचार भी हमारी संख्याके क्षयका माता होती है और शीघ्र ही विधवा बनकर बड़ा भारी कारण है । इलाहाबाद, अलीगढ़, समाजमै दुराचारोंकी वृद्धि करती है । इस लिए सहारनपुर, आदि नगरोंकी संख्या १९०१ से बुद्धविवाहकी दुष्प्रथाको शीघ्र ही बन्द करना १९११ तकके दश वर्षोंमें बहुत कम गई है। चाहिए । इसके लिए पंचायतियोंको यत्न करना वास्तवमें इनकी संख्या बढ़नी चाहिए थी। चाहिए । पंचायतियोंकी शक्तिको बढ़ाना हम क्योंकि लोगोंकी प्रवृत्ति गाँवों और कस्बोंको छोड़ लोगोंके हाथमें है। छोडकर शहरोंमें जा बसनेकी ओर बढ़ रही है । ६ व्यभिचार । युक्तप्रान्तके अन्य समा- व्यापारादिके निमित्तसे जैनी लोग शहराम हा जोंकी तरह जैनसमाजमें भी व्यभिचारका बे- आधिक बसते जाते हैं । परन्तु व्यभिचारने शुमार प्रचार हो रहा है । ज्ञात होता है कि संख्याको बढ़ानेके बदले घटाया है । यह शीलवत इस समाजसे बिदा ले चुका है और सभी जानते हैं कि, व्यभिचारी स्त्रीपुरुषोंके एक जैनधर्मका प्रभाव. इसके हृदयसे बिलकुल उठ तो संतान ही नहीं होती और यदि होती है तो गया है । यह समाज केवल ऊपरसे जैनधर्म- निर्बल, रोगी और अल्पायु होती है । व्यभिचारी का अंगा पहने हुए है; जिसके भीतर इसका पुरुष स्वयं भी निर्बल, निस्तेज, साहसहीन, हृदय छुपा हुआ है । इसकी भीतरी हालत बड़ी रोगी और अल्पायु हो जाते हैं । मूत्र रोग तो ही गंदी है । इस व्यभिचारके रोगमें यहाँके युवा उन्हें घेरे ही रहते हैं । स्त्रियों की भी यही दशा ही ग्रसित नहीं हैं, बालक और बूढ़े भी इसके होती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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