Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ MANARAR aranmasARAN RANANARARA परामर्श। SWISSARS Souss FastwaRamasan [ले०-श्रीयुत पं० रामचरित उपाध्याय] देश-प्रेम ही सिद्ध मन्त्र है, और सुखोंका मूल सपूतो। भारतके आगे त्रिभुवनको, समझो पगकी धूल सपूतो॥१॥ भिक्षुक बननेसे भिक्षा भी मिल सकती है नहीं सपूतो। निर्जल भूतल पर क्या नलिनी, खिल सकती है कहीं सपूतो ॥२॥ दुखड़ा रोनेसे क्या कोई पाता है सुख-भोग सपूतो। निज उन्नतिके लिए निरन्तर, करो उचित उद्योग सपूतो ॥३॥ साहस-धैर्य-प्रताप-पराक्रम-बुद्धि-एकता-पूर्ण सपूतोजब होजाओगे, तब जगमें सभ्य बनोगे तूर्ण सपूतो॥४॥ कर्मवीर बनना है यदि तो छोड़ो विषय-विलास सपूतो। पहले अपनी चाल सुधारो, क्यों सहते उपहास सपूतो॥५॥ आर्यवंश हो, दस्यु-वंशके लगे बनाने ठाट सपूतो। गौरव मिले तुम्हें फिर कैसे ? खोलो नेत्र-कपाट सपूतो ॥६॥ अपनेको अपना तुम समझो और अन्यको अन्य सपूतो। नागर थे, पर कायर होकर, क्यों बनते हो वन्य सपूतो ॥७॥ विद्या बल वैभवके जो तुम, पहले थे आधार सपूतो। हा। वे ही तुम आज बने हो क्यों जगमें भू-भार सपूतो ॥ ८॥ अब भी अवसर है दिखला दो, मानवताके कर्म सपूतो। कुछ भी लाज नहीं लगती क्यों, सोचो दैशिक धर्म सपूतो॥९॥ क्यों न प्रकट करते हो तुम भी नूतन कला-कलाप सपूतो। क्यों प्रलाप करते हो ? सीखो, करना मेल मिलाप सपूतो ॥१०॥ सोच समझकर करो प्रेमसे, पुण्य पुरुषके काम सपूतो। जिससे नहीं तनिक भी डूबे, आत्म-वंशका नाम सपूतो ॥११॥ हिन्दीको जननी सम मानो, या जानो निज प्राण सपूतो। यदि सचमुच तुम चाह रहे हो, भारतका कल्याण सपूतो ॥१२॥ es avastasnastastrasmanastastrammastamannastasevasanaRanAmastram Suspensis Seaso Sve standartasta suvusings Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98