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अङ्क ९-१०]
विचित्र ब्याह ।
जो कुछ हो उद्योगशील थी बड़ी सुशीला, लिखना पढ़ना हरिसेवकका पड़ा न ढीला दुख वह सहती स्वयं किन्तु सुतको सुख देती, सुतको विद्यादान दिला यशको थी लेती १३ ज्ञान-दानके तुल्य अन्यका दान नहीं है, क्योंकि विज्ञके तुल्य अन्यका मान नहीं है। रजत-कनक-भू-रत्न सदा क्या रह सकते हैं ? क्या विद्याको नाशवान भी कह सकते हैं ? ।। खो जाती है कभी हाथमें संपति आकर, पर देती है साथ सदा विद्या जीवन भर । कंचन पाकर मनुज पाप भी कर सकता है, किन्तु विज्ञ क्या पाप-गर्त में गिर सकता है ? ॥१५॥ बुधजन अपने नाम अमिट चाहें तो कर दें, निर्बलमें भी महाशक्ति चाहें तो भर दें। कठिन समस्या-पूर्ति विज्ञ ही कर सकता है, दुःख-भारक्या अज्ञ देशका हर सकता है ? १६ कल्पवृक्ष है काठ उपल चिन्तामणि भी है, विद्याके वे तुल्य इसीसे नहीं कभी हैं। पारसमणि निजतुल्य किसीको क्या करता है ? पर अज्ञोंको विज्ञ, विज्ञजन कर सकता है। इसी लिए जो ज्ञान-दान देते दिलवाते, वे प्राणी हैं धन्य पुण्य अक्षय हैं पाते।। उनके यशको सदा जगतमें बुध गाते हैं, उनके दोनों लोक जगतमें बन जाते हैं ॥ १८ ॥ इसी बातको ठीक सुशीला भी कहती थी, भले काममें सदा सती तत्पर रहती थी। रक्तनीरको एक किया दृढ़तासे उसने, तनय पढ़ाना ठान लिया स्थिरतासे उसने ॥१९॥ हरिसेवक भी खेल तमाशों में न लगा था, केवल विद्याध्ययन रंगमें खूब रँगा था। उससे कोई द्रोह नहीं कुछ भी करता था, दुर्जनसे रह दूर, सुजनसे वह डरता था ॥२०॥ उसका भाषण बड़ा मधुर था बड़ा सरल था,दुर्व्यसनोंको मान रहा वह महा गरल था। परकी निन्दा कमी नहीं करनेवाला था, गुरुकी आज्ञा शीस सदा धरनेवाला था ॥२१॥ सत्य वचनका मिला हुआ था, उसे सहारा, परको करना दुखी न उसने कभी विचारा। कभी स्वममें भी न मांसको उसने देखा, मद उत्पादक वस्तु पापमय उसने लेखा ॥ २२॥ हिन्दीमें सत्प्रेम सदा उसका रहता था, मुक्तकण्ठसे उसे राष्ट्रभाषा कहता था। हिन्दू, हिन्दी, हिन्द, जपा करता था मनमें, देशोन्नतिका ध्यान उसे रहता था मनमें॥२३॥ 'विद्यालयको नित्य चला जाता था घरसे, मगमें रुकता कहीं नहीं था, गुरुके डरसे । उसको आलस-छूत तनिक भी नहीं लगी थी, उसके मनमें पठन-प्रीति निःसीम जगी थी। होता था हर साल परीक्षोत्तीर्ण नेमसे, उसे इसीसे सभी देखते रहे प्रेमसे। • छुट्टीमें भी कभी न सोता था वह दिनमें, विलासिताका लेश नहीं था उसके मनमें ॥
इस प्रकार अठारह वर्षका, नव युवा हरिसेवक हो गया। पर विवाह हुआ उसका नहीं, पड़ गई जननी अति शोकमें ॥ २६ ॥ बहुत सोच किया पर अन्तमें, स्थिर किया मनमें उसने यहीअब विवाह करूँ जिस भाँति हो, मम कुमार कुमार रहे नहीं ॥ २७॥
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