Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 27
________________ अङ्क ९-१०] दर्शनसार-विवेचनका परिशिष्ट । आचरण ग्रहण कर रखा है, वह इस लोकमें हुआ ग्रन्थ है, प्राचीन है, अतएव हमने उस भी सुखका कर्ता है । इस दुःषम कालमें हम उसे परसे श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्तिकी इस नहीं छोड़ सकते । ६५। तब शान्याचार्यने कहा कथाको यहाँ उद्धृत कर देना उचित समझा। कि यह चारित्रसे भ्रष्ट जीवन अच्छा नहीं । यह भट्टारक रत्ननन्दिने अपने भद्रबाहुचरित्रका जैनमार्गको दूषित करना है । ६६ । जिनेन्द्र अधिकांश इसी कथाको पल्लवित करके लिखा भगवानने निर्ग्रन्थ प्रवचनको ही श्रेष्ठ कहा है । है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि उनकी कथाका उसे छोड़कर अन्यकी प्रवृत्ति करना मिथ्यात्व मूल यही है; परन्तु उन्होंने अपने ग्रन्थमें इस है । ६७। इस पर उस शिष्यने रुष्ट होकर अपने कथामें जो परिवर्तन किया है, वह बड़ा ही बड़े डंडेसे गुरुके सिरमें आघात किया, जिससे विलक्षण है । उनके परिवर्तन किये हुए कथाशान्त्याचार्यकी मृत्यु हो गई और वे मर करके भागका संक्षिप्त स्वरूप यह है- “भद्रबाहु व्यन्तर देव हुए। ६८ । इसके बाद वह शिष्य स्वामीकी भविष्यवाणी होने पर १२ हजार साधु । संघका स्वामी बन गया और प्रकट रूपमें सेवड़ा उनके साथ दक्षिणकी ओर विहार कर गये, या श्वेताम्बर हो गया । वह लोगोंको धर्मका परन्तु रामल्य, स्थूलाचार्य और स्थूलभद्र आदि उपदेश देने लगा और कहने लगा कि सग्रन्थ मुनि श्रावकोंके आग्रहसे उज्जयिनीमें ही रह गये। या सपरिग्रह अवस्थामें निर्वाणकी प्राप्ति हो कुछ ही समयमें घोर दुर्भिक्ष पड़ा और वे सब सकती है । ६९ । अपने अपने ग्रहण किये हुए शिथिलाचारी हो गये । उधर दक्षिणमें भद्रबाहु । पाषण्डोंके सदृश उसने और उसके अनुयायियोंने स्वामीका शरीरान्त हो गया । सुभिक्ष होनेपर शास्त्रोंकी रचना की, उनका व्याख्यान किया उनके शिष्य विशाखाचार्य आदि लौटकर उज्जऔर लोगोंमें उसी प्रकारके आचरणकी प्रवृत्ति यिनीमें आये । उस समय स्थूलाचार्यने अपने चला दी। ७० । वे निम्रन्थ मार्गको दूषित बत- साथियोंको एकत्र करके कहा कि शिथिलाचार लाकर उसकी निन्दा और अपनी प्रशंसा करने छोड़ दो; पर अन्य साधुओंने उनके उपदेशको - लगे...। ७१ । अब वह जो शान्ति आचार्यका न माना और कोधित होकर उन्हें मार डाला। जीव व्यन्तरदेव हुआ था, सो उपद्रव करने लगा स्थूलाचार्य व्यन्तर हुए । उपद्रव करने पर वे . और कहने लगा कि, तुम लोग जैनधर्मको पाकर कुलदेव मानकर पूजे गये। इन शिथिलाचारियोंसे मिथ्यात्व मार्ग पर मत चलो । ७२ । इससे 'अर्द्ध फालक' (आधे कपड़ोंवाले) सम्प्रदायका उन सबको बड़ा भय हुआ और वे उसकी जन्म हुआ । इसके बहुत समय बाद उज्जयिनीमें सम्पूर्ण द्रव्योंसे संयुक्त अष्ट प्रकारकी पूजा करने' चन्द्रकीर्ति राजा हुआ । उसकी कन्या वल्लभीलगे। वह जिनचन्द्रकी रची हुई या चलाई हुई पुरके राजाको ब्याही गई । चन्द्रलेखाने अर्धउस व्यन्तरकी पूजा आज भी की जाती है फालक साधुओंके पास विद्याध्ययन किया था, ।। ७३ । आज भी वह बलिपूजा सबसे पहले इस लिए वह उनकी भक्त थी। एक बार उसने उसके नामसे दी जाती है। वह श्वेताम्बर संघका अपने पतिसे उक्त साधुओंको अपने यहाँ बुलापूज्य कुलदेव कहा जाता है। ७४ । यह मार्गभ्रष्ट नेके लिए कहा । राजाने बुलानेकी आज्ञा दे श्वेताम्बरोंकी उत्पत्ति कही । इससे आगे अज्ञान दी। वे आये और उनका खूब धूम धामसे मिथ्यात्वका स्वरूप कहा जायगा । ७५।। स्वागत किया गया। पर राजाको उनका वेष भावसंग्रह विक्रमकी दशवीं शताब्दिका बना अच्छा न मालूम हुआ । वे रहते तो थे नग्न, पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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