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जैनहितैषी
[ भाग १३
ये कटाक्ष असह्य मालूम दिये, इस लिए स्वयं ही महान् व्याकरण बनानेमें समर्थ हैं। उन्होंने अपने संप्रदायके तद्विषयक साहित्य- राजाने साहाय्य देना स्वीकार किया; जिससे स्थानको भी अशून्य बना देनेका यह काम एक वर्ष भरहीमें आचार्यजीने सवालक्ष श्लोककर दिखाया और अपने अर्वाचीनत्वको प्रमाण सर्वांगपूर्ण सिद्धहेमशब्दानुशासन नामक तिरोहित कर दिया ! परन्तु यह बात समझमें व्याकरण बना दिया । नहीं आती कि इस प्रकारके एक दो ग्रंथोंके अस्तु । यदि ये दूसरोंके द्वारा किये जानेबन जानेसे आक्षेपक लोग कैसे शान्त हो गये वाले कटाक्षोंकी बातें सच हों तो श्वेताम्बर होंगे और श्वेताम्बरोंकी प्राचीनताका कैसे सम्प्रदायके अनुयायियोंको कटाक्षकर्त्ताओंका स्वीकार करने लग गये होंगे । इसके सिवाय उपकार ही मानना चाहिए, जिनके कारण उनके यह बात भी विचारणीय है कि जो दिगम्बर साहित्यका बहुत ही विकास हुआ और उससे लोग श्वेताम्बरों पर कटाक्ष करते थे वे, समूचे भारतीय साहित्यकी शोभामें भी अपरिअपने साहित्यमें भी पूज्यपाद और माणिक्य- मित वृद्धि हुई । १२-९-१९१७ । बम्बई । नन्दि आदिके प्रादुर्भावके पहले इस प्रकारके नोट—प्रमालक्षणके कर्ता जिनेश्वरसूरि शोंका अभाव होने पर अपनी आदिमत्ता या बटे भारी तार्किक समझे जाते हैं, तब मालूम प्राचीनताको कैसे प्रमाणित करते होंगे ? नहीं कि उनकी तर्कप्रवण बुद्धिमें यह बात
कहा जाता है कि, हेमचंद्राचार्यको अपना सुप्र- कैसे जंच गई कि तर्कलक्षणग्रन्थ बना देनेसे सिद्ध व्याकरण सिद्धहेमशब्दानुशासन भी इसी श्वेताम्बरसम्प्रदाय परसे अर्वाचीनत्वका आरोप प्रकारका एक कारण उपस्थित होनेसे बनाना पड़ा उठा दिया जायगा । एक तो इस बात पर था । प्रबन्धचिन्तामणिमें लिखा है, कि हेमच- विश्वास ही नहीं होता है कि किसी विचारशील न्द्राचार्य सिद्धराज जयसिंहकी सभामें एकदिन विद्वानके द्वारा श्वेताम्बरसम्प्रदाय पर इस किसी एक काव्य पर अपना अपूर्व अर्थचातुर्य प्रकारके आक्षेप किये जाते होंगे । क्योंकि प्रकट कर रहे थे। उसे सनकर राजा बहत लक्षणग्रन्थोंका होना न होना प्राचीनता या खुश हुआ और उनके पाण्डित्यकी प्रशंसा करने अर्वाचीनताका हेतु नहीं हो सकता । दूसरे लगा। एक ब्राह्मण विद्वान्को यह बात सहन न यदि साधारण लोगोंके द्वारा ऐसे आक्षेप किये हुई । वह बोला-महाराज, इसमें इनकी क्या * अस्मिन् काव्ये निःप्रपञ्चे प्रपञ्चमाने तद्वचनचातुरीशोभा है ? हमारे ही व्याकरणादि शास्त्रोंके चमत्कृतचेता नृपस्तं प्रशंसन् कैश्चिदसहिष्णुभिरस्मप्रभावसे ये इतनी विद्वत्ता प्राप्त कर सके हैं। च्छानाध्ययनबलादेतेषां विद्वत्तेत्यभिहिते राज्ञा पृष्ठाः राजाने आचार्यजीके सामने देखा, तब वे बोले श्रीहेमचन्द्राचार्याः । पुरा श्रीजिनेन श्रीमन्महावीरेणन्द्रस्य , कि, पहले हमने तुम्हारा नहीं, किन्तु वह व्याकरण पुरतः शैशवे यद्व्याख्यातं तज्जैनव्याकरणमधीयामहे पढा है; जिसे महावीर जिनने अपनी बाल्या. वयमिति । तद्वाक्यानन्तरमिमा पुराणवार्तामपहायास्मा
कमेव सन्निहितं नृपं व्यारणकर्तारं कमपि तेति तत्पि. वस्थामें इन्द्रके सामने प्रकट किया था। ब्राह्मणने .
शुनवाक्यादनु ते प्राहुः-यदि श्रीसिद्धराजः सहायीभवति कहा
तदा कतिपयैरेव दिनैः पञ्चाङ्गमपि नूतनं व्याकरणं यदि कोई आधुनिक व्याकरणकर्ता आपमें हो रचयामः।......श्रीहेमाचार्यैः श्रीसिद्धहेमाभिधान पश्चातो हमें बतलाइए । हेमचंद्राचा र्यने उत्तर दिया कि अमपि व्याकरणं सपादलक्षप्रन्थप्रमाणं संवत्सरेण स्चयां यदि महाराज सिद्धराज साहाय्य करें, तो मैं चक्रे । (प्रबन्धचिन्तामणिः, पृ० १४६-७.)
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