Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 25
________________ अङ्क ९-१०] वर्शनसार विवेचनका परिशिष्ट । थे, माला आदि धारण करते थे और तिलक दुद्धिय पत्तं च तहा, भी लगाते थे। - पावरणं सेयवत्थं च ॥ ५८॥ वचनिकाके कर्त्ताने लिखा है कि ? पंचो चत्तं रिसिआयरणं, पाख्यान, २ सप्ताशीति, और ३ सिद्धान्तशि गहिया भिक्खाय दीणवित्तीए । उवविसिय जाइऊणं, रोमाणि ये तीन ग्रन्थ द्राविड संघके हैं । संभव __ भुत्तं वसहीसु इच्छाए ॥ ५९॥ है कि इन ग्रन्थोंकी प्राप्ति जयपुरके किसी एवं वटुंताणं कित्तिय भण्डारसे हो जाय । यदि ये मिल जायँ, तो कालम्मि चावि परियलिए। इस संघके विषयमें हमारी जो गाढ़ अज्ञानता संजायं सुभिक्खं, है, वह अनेक अंशोंमें विरल हो सकती है । जंपइ ता संति आइरिओ॥६॥ ४ श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्तिका इतिहास आवाहिऊण संघ, देवसेनसूरिकृत भावसंग्रहमें इस प्रकार दिया है: __ भणियं छेडेह कुत्थियायरणं। जिंदिय गरहिय गिण्हह, छत्तीसे वरिस सए पुणरविचरियं मुणिंदाणं ॥६१॥ विक्कमरायस्समरणपत्तस्स । तं क्यणं सोऊणं सोरहे उप्पण्णो उत्तं सीसेण तत्थ पढमेण । सेवडसंशे हु वलहीए ॥५२॥ को सक्कइ धारे, आसि उज्जेणिणयरे, आयरिओ भद्दबाहुणामेण । एयं अइ दुद्धरायरणं ॥६२॥ जाणिय सुणिमित्तधरो, उववासो य अलाभो, भणिओ संघो णिओ तेण ॥५३॥ अण्णे दुसहाइ अंतरायाई। होहइ इह दुभिक्खं, एक्कठाणमचेलं, बारह वरसाणि जाव पुण्णाणि । __ अजायणं बंभचेरं च ॥६॥ देसंतराय गच्छह, भूमीसयणं लोचो णियणियसंघेण संजुत्ता ॥ ५४॥ वे वे मासहिं असहिणिज्जो हु। सोऊण इयं वयणं, वावीस परिसहाई _णाणादेसेहिं गणहरा सव्वे । __ असहिणिज्जाई णिचंपि ॥ ६४॥ णियणियसंघपउत्ता, जं पुण संपइ गहियं, विहरीआ जच्छ सुभिक्खं ॥५५॥ एयं अम्हेहि किंपि आयरणं । एक पुण संति णामो, इह लोयसुक्खयरणं, .. । संपत्तो वलहि णाम जयरीए । ___ण छंडिमोहु दुस्समे काले ॥६५॥ बहुसीससंपउत्तो, ता संतिणा पउत्तं, विसए सोरहए रम्मे ॥ ५६ ॥ चरियपभहोहिं जीवियं लोए। तत्थ विगयस्स जार्य, एयं ण हु सुंदरयं, दुभिक्खं दारुणं महाघोरं । दूसणयं जइणमग्गस्स ॥६६॥ जत्थ वियारिय उयरं, णिग्गंथं पव्वयणं, खोरकेहि कुरुत्ति ॥५७॥ . जिणवरणाहेण अक्खियं परमं । ते लहिऊण णिमित्तं, तं छडिऊण अण्णं, महियं सव्वेहिं कंबलीदंडं। पवत्तमाणेण मिच्छत्तं ॥६७॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98