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४०६ जैनहितैषी
[ भाग १३ पर और खाँबहादुर मौलवी तमीजखाँ दूसरे करते हैं, नीचे क्लबमें फुटबाल आदि अनेक स्थान पर लिखते हैं कि-" बेचारी दीन खेल खेलते हैं और बाबूसाहबान किसी लड़कियाँ पानीमें फूलनेवाली लकड़ीके साथ प्रेमिकाके सड़े डेरेमें अपने स्वास्थ्यका सर्वपानीके टबमें बैठाली जाती हैं जिससे कि वे नाश करते हैं । पहाड़से लौटे हुए एक अंगरेज पुरुषोंके समागमके लिए तैयार हो जायँ । कहीं और हिन्दुस्तानीका स्वास्थ्य उनके आचारकी कहीं यह काम केलेसे लिया जाता है । " गवाही देने लगता है ! '. Dr. Chevers — Means are commonly भारतके कुल शहरोंकी वेश्याओंकी संख्याemployed even by parents to render . जो मर्दुमशुमारीके समय अपना यही पेशा the immature girl ople Viris by बताती हैं-४,७२,९९६ है । बहुतेरी वेश्यायें mechanical means '-बस, यहाँ तो सभ्य- डरसे अथवा लाजसे अपना पेशा कुछ और बता ताका अन्त हो गया !
देती हैं, इसलिए उनकी संख्या इसमें शामिल - सन् १८५२ ईसवीमें कलकत्तेमें १२,४१९ नहीं है । इन पौने पाँच लाखके लगभग वेश्यावेश्यायें थीं और उनमेंसे १०,४६१ हिन्दू थीं । ओंकी वार्षिक आमदनी ६२,४६,००,००० सन् १८७० ई० में इस शहरमें ७,९३९ हिन्दू, (बासठ करोड़!) रुपया है। १,१६२ मुसलमान, ५६ यूरेशियन, ५ यूरो- शोक यह है कि इस प्रकारका खुला व्यभिपियन और ३५ यहूदिन आदि वेश्यायें थीं। चार भारतमें दिनों दिन कम होने के बदले - यह दशा केवल कलकत्ता शहरकी ही नहीं बढ़ता जाता है, और वेश्याओंकी संख्यामें है। इस खुले व्यभिचारका साइनबोर्ड भारतके अधिकता होती जाती है । पनाबकी हिन्दू सभा प्रत्येक शहरके खास बाजार या चौकमें दिखाई लिखती है कि “इस प्रान्तके प्रत्येक मुख्य मुख्य देगा । बम्बईका व्हाइट मारकेट ( सफेद गली), शहरमें व्यभिचारके लिए लड़कियोंकी खरीद लाहौरकी अनार कली, दिल्लीका चावड़ी बाजार, और फरोख्त बढ़ रही है । सन् १९११ में
और लखनऊका खास चौक वेश्याओंसे भरा प्रान्तीय लाट महोदयने, इस बातकी तसदीक पड़ा है । तीर्थराज, पापनाशक, पवित्र काशी- की है।" नगरमें, संयुक्त प्रान्तके सब शहरोंसे अधिक अस्पतालोंके रजिस्टर, दवा बेचनेवालोंके वेश्याओंकी संख्या है। डाक्टर और वैद्य भी यहाँ इश्तिहार और कोढ़ियोंकी संख्यासे भी इस देशके युक्तप्रान्तके सारे शहरोंसे अधिक हैं। (वेश्या- व्यभिचारकी झलक मालूम पड़ती है । कोढ़का ओंकी अधिकताके साथ डाक्टरोंकी ज्यादती होनी रोग चाहे पैतृक भी हो, पर इस रोगके पीछे ही चाहिए। ) प्रयाग, मथुरा, वृन्दावन और सिफलिस (गर्मी) अवश्य हुआ करती है। हरद्वार तक इनका डेरा जमा रहता है । पवित्र प्रोफेसर हिगिन बाटम-जिन्होंने कोढ़ियों में बहुत भमि कनखल' में भी आप इन्हें देख लीजिए। काम किया है-कहते हैं कि आजतक उन्हें कोई नैनीताल आदि पहाड़ोंके ऊपर लोग कुछ कोढ़ी ऐसा न मिला-जिसे खुद अथवा जिसकी ही महीनोंके लिए जाते हैं। बाबू साहबों के साथ छूतसे उसे यह रोग हुआ-सिफलिस न. निकल साथ बाईजीयों ( वेश्याओं ) का डेरा भी चुकी हो । कोढ़की जड़ गर्मी है । यह तो खले बदाऊँ, मुरादाबाद क्या बरेली तकसे वहाँ पहुँच हुए व्यभिचारकी कथा हुई । इससे तो कोई जाता है । अंगरेज तो शामके वक्त बोटिंग इनकार ही नहीं कर सकता । अब रहा गुप्त
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