Book Title: Jain Hiteshi 1917 Ank 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 47
________________ अङ्क ९-१० ] शास्त्रों के ही नहीं, न्याय, व्याकरण, काव्य, कोष, नाटक, छन्द, अलंकार आदि सभी विषयोंके अध्ययन के प्रचारको चढ़ाया * 1 इनका अनुकरण और और साधुमण्डलोंने भी उत्साहके साथ किया, जिसके कारण ३०-४० वर्षहीमें सैकड़ों प्रौढ पण्डित तैयार हो गये और उन्होंने अपने पाण्डित्यसे जैनधर्मको और उसके साहित्यको उत्तम रीति से विभूषित करना शुरू कर दिया । इन्होंने शिथिलाचारका बड़े जोरशोरसे निषेध करना प्रारंभ किया और अणहिलपुरकी राजसभामें कई शिथिलाचारपोषक यतियोंके साथ वाद करके उनको निरुत्तर किया, जिससे यतिसमूहमें फिर शुद्धाचरणकी प्रवृत्ति बढ़ने लगी । पहले कहा जा चुका है कि जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरिके पहले श्वेताम्बरोंके न्याय, व्याकरण आदि लक्षणग्रंथ नहीं थे और यह न्यूनता उन्हें बहुत खटकी । इसकी पूर्ति करनेके लिए जिनेश्वरसूरिने एक उत्तम तर्कलक्षण ग्रंथ और बुद्धिसागराचार्यने एक सर्वांगपूर्ण शब्दलक्षणशास्त्र बनाया । तर्कलक्षण ग्रंथका नाम है- ' प्रमालक्षण' और शब्दशास्त्रका नाम है–'बुद्धिसागर-व्याकरण ' + | श्वेताम्बर संप्रदायके यही दोनों तर्क और शब्दविषयके सबसे पहले लक्षण ग्रंथ हैं ! यद्यपि श्वेताम्बर साहित्य में * इस बातका उल्लेख जिनेश्वरसूरिके प्रशिष्य वर्द्धमानाचार्यने अपने बनाये हुए 'आदिनाथ चरियम् ' नामक प्राकृत ग्रंथकी प्रशस्तिमें जो संवत् ११६० पूर्ण हुआ है— किया है । प्रमालक्षण । सूरिजिणेसर सिरि बुद्धिसागरा सागरो व्व गंभीरा । सुर-गुरु-सुक्क सरिच्छा सहोयरा तस्स दो सीसा ॥ वायरण- च्छन्द निघण्टु-कव्व नाडय पमाणसमयेसु । अणिवारियप्पचारा जाणमइ सयलसत्थेसु ॥ + इसकी समाप्ति संवत् १०८० में, मारवाड़के बालिपुर (जालौर) में हुई है । इसी वर्ष में जिनेभरसूरिने हरिभद्रके अष्टक संग्रहकी भी टीका की है। Jain Education International ४१९ इस समय इनसे भी बड़े बड़े न्याय और व्याकरणके अनेक ग्रंथ मौजूद हैं और उनकी उत्तमता और अनुपमता अच्छे अच्छे अजैन विद्वानों ने भी प्रमाणित की है; परन्तु वे सब इनके पीछे बने हैं । यह ग्रंथ सूत्रात्मक नहीं, किन्तु धर्मकीर्ति के न्यायवार्तिकके सदृश वार्तिकरूप है । महाम सिद्धसेन दिवाकरके प्रसिद्ध ग्रंथ न्यायावतार के 'प्रमाणं स्वपरावभासि, ज्ञानं बाधविवर्जितम् । 66 प्रत्यक्षं च परोक्षं च, द्विधा मेयविनिश्वयात् ॥ "" इस आदि श्लोकको मूल मानकर इसीके व्याख्यानके रूपमें ४०५ कारिकायें बनाई गई हैं और फिर उनको अपनी ही बनाई हुई विस्तृत वृत्तिसे स्पष्ट और पल्लवित किया है। इस प्रमाण और प्रमेयके साथ सम्बन्ध रखनेवाले सभी विषयोंके लक्षण बहुत अच्छी तरह से प्रतिपादित किये गये हैं । दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, शान्तिरक्षित, कुमारिल आदि प्रख्यात नैयायिकों के विचारोंकी भी जगह जगह आलोचना- प्रत्यालोचना की गई है। ग्रंथ रोचक और प्रतिपादक पद्धतिसे लिखा गया है। इसमें कहीं कहीं कटाक्षयुक्त वाक्योंका भी प्रयोग किया है; परंतु असभ्यता के साथ नहीं । एक उदाहर लीजिए महान् मीमांसक कुमारिल भट्टने अपने श्लोकवार्तिक्रमें वेदोंकी आप्तता सिद्ध करते हुए में आकर एक जगह वेदोंको अनाप्त माननेवाले जैन और बौद्धोंके लिए लिखा है कि -- धारणाध्ययनव्याख्यानित्यकर्माभियोगिभिः । मिथ्यात्वहेतुरज्ञातो दूरस्यैर्ज्ञायते कथम् ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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